कोउ नृप होय हमै का हानि…..

मध्यकाल के युगद्रष्टा कवि गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘रामचरितमानस’ की प्रसिद्ध पंक्ति- ‘कोउ नृप हो, हमै का हानि…..’ में मंथरा के बहाने शासन और सत्ता से त्रस्त आम जनता की आह शब्दबद्ध हुआ है। यह वही दौर था, जब राजा और प्रजा का संबंध विच्छेद हो चुका था। राजा अपने निजी सुख- सुविधाओं को भोगने तथा साम्राज्य विस्तार में तल्लीन था तो आम जनता रोजी- रोटी के संकट से जूझ रही थी। इतिहास साक्षी है कि भारत पर बार-बार विदेशी आक्रान्ताओं का अधिपत्य होने के पीछे भी यही कारण था कि तत्कालीन राजा से उनके प्रजा के संबंध अच्छे नहीं थे। संबंध अच्छे होते भी कैसे? ये वही राजा थे, जो उनसे जबरन टैक्स बसूलते थे। ये वही राजा थे जो प्रजा के दुख-दर्द से दूर सुरा और सुन्दरी में आपादमस्तक निमग्न थे। अतएव, इनका सर्वनाश देखना प्रजा के लिए सुखकर ही था।
मुगलकाल आम जनता की दृष्टि से राजनीतिक स्खलन का काल था। इस दौर में जनता के अनेक तरह से सताए गए थे। यही कारण है कि महाकवि तुलसीदास ने तद्युगीन जरूरतों के अनुसार ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड में ‘रामराज्य’ की परिकल्पना की है। ‘रामराज्य’ बनाम ‘वेलफेयर स्टेट’। एक ऐसा राज्य, जिसमें राजा प्रजा का हितचिंतक हो, वह जनता के दुख-दर्द में शामिल हो। कवि ने रामराज्य का उदात्त वर्णन करते हुए कहा है कि –
– ‘दैहिक दैविक भौतिक तापा।
रामराज काहू नहिं ब्यापा।।’
अर्थात् ऐसा राज्य, जिसमें किसी भी जनता को दैहिक (शारीरिक), दैविक (ईश्वर प्रदत्त) या भौतिक (आर्थिक) पीड़ा न हो। निश्चय ही कालांतर में प्रजातंत्र के जन्म में यह भावनात्मक शुचिता थी। लोग ऐसे शासन व्यवस्था की तलाश कर रहे थे जो जनकल्याणकारी हो। जो जनता का हितचिंतक हो। मसलन भारत में राजतंत्र के साथ-साथ लोकतंत्र का जन्म हुआ। भारत को लोकतंत्र की जननी कहा जाता है। भारत के लिच्छवी गणराज्य में लोकतंत्र के आदिम बीज मिलते हैं।
लोकतंत्रात्मक शासन प्रणाली भारत की सामासिक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखने में मील का पत्थर साबित हुआ। भारत में समय-समय पर अनेक जातियों, वर्गों तथा धर्मावलंबियों का आगमन होता रहा। यहाँ की समन्वयवादी संस्कृति ने अपने भीतर तमाम विरोधाभासी विचारों- मंतव्यों को आत्मसात कर लिया। भारत में यद्यपि इन आक्रांताओं का आगमन भारतीय संपदा को लूटने के उद्देश्य से हुआ, पर यहाँ आने वाली अधिकांश जातियाँ, यहीं का होकर रह गईं। समय के साथ वे बहुरंगी नदियों की भाँति भारत के विशाल समुद्र में खो गए। भारत की सामासिक संस्कृति ने उन्हें अपने में इस कदर पचा लिया कि वे इसे ही अपना देश समझने लगे। प्रसाद जी की एक पंक्ति यहाँ सटीक लगती है-
‘अरुण यह मधुमय देश हमारा।
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा।।’

इसलिए यह कहने में कोई संकोच नहीं कि आज जो भारत की संस्कृति है, वह अनेक संस्कृतियों की टकराहट और सम्मिलन से निर्मित हुई है। दुनिया की समृद्ध से समृद्ध संस्कृति आज निर्मूल हो गई, पर भारत की सभ्यता और संस्कृति दिनानुदिन समृद्ध होती चली गई। इकबाल ने ठीक ही कहा है-  ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।’
यह विडम्बना है कि आजादी के बाद पुन: भारतीय राजनीति में इतनी गिरावट आई, स्वार्थ ने इस तरह मनुष्य को अपने आगोश में ले लिया कि राजनीति से ‘नीति’ शब्द का लोप  हो गया और लोकतंत्र से ‘लोक’ को बहिष्कृत कर दिया गया। आज लोकतंत्र ‘जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा किया गया शासन न रहा, बल्कि इसमें राजतंत्र की अव्याख्येय छवि स्थापित हो गई है। इसलिए अगर वर्तमान प्रजातंत्र को ‘प्रच्छन्न राजतंत्र’ कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। चूँकि अब इसमें राजनेताओं के उत्तराधिकारी का बोलबाला हो गया है। भाई- भतीजावाद की परंपरा ने राजनीति की तमाम शुचिता को मटियामेट कर दिया है।
एक समय था जब राजनीति में आने वाले लोग परिवर्तन की चेतना लेकर आते थे। उनके मन में किसी भी तरह का स्वार्थ भाव न था। जनता की सेवा करना ही उनका मूल ध्येय था, परंतु अब राजनीति मुनाफे का कारोबार बन गया है। इसमें पूंजी लगाकर लोग आते हैं और सूद ब्याज समेत वसूल कर बाहर निकल जाते हैं। अतएव, स्खलन के इस दौर में हम तत्कालीन राजनीतिज्ञों से क्या ही उम्मीद कर सकते हैं? अब तो राजनीति और अपराध का ऐसा नाभिनाल संबंध स्थापित हो गया है कि अपराध ही राजनीति में जाने का राजमार्ग बन गया है। जो जितना बड़ा अपराधी है, वह उतना ही बड़ा नेता। या यूँ कहें कि जो जितना बड़ा नेता है, वह उतना ही बड़ा अपराधी। राजनीति अपराध को छिपाने का सफेद चादर है।
बहरहाल, वर्तमान लोकतंत्र से ‘लोक’ बनाम आम जनता का विश्वास उठ रहा है। लोग चुनाव के प्रति धीरे-धीरे उदासीन हो रहे हैं। उनके सामने सबसे बड़ा संकट है कि वह किसे अपना प्रतिनिधि चुने? कोई भी बेदाग चेहरा मिलता नहीं! इस देश की वह जनता जो स्वाधीनता संग्राम के दौर में आजादी के सपने देख रही थी, वह आज भी स्वप्नजीवी बनकर जी रही है। आखिरकार वह दिन कब आएगा, जब भारत को सार्वभौम आजादी मिलेगी! कभी स्वाधीनता दिवस आता है तो कभी गणतंत्र दिवस और इसी तरह आजादी का अमृतमहोत्सव मनाने का दिन आता है! सब आकर चला जाता है! देश की बहुसंख्यक जनता बस चश्मदीद बनकर रह जाती है, यही सोचकर कि ‘कोउ नृप होई हमै का हानि….’
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