कैसे साकार होगा विकसित भारत का स्वप्न

यह बहुत ही सुखद है कि आजादी के सौ वर्ष पूरे होने तक (अर्थात 1947 तक) भारत को विकसित राष्ट्र बनाने का संकल्प लिया गया है। ‘गाँधी के सपनो का भारत’ जैसे शब्द-युग्म अब अर्थहीन प्रतीत हो रहे थे। ऐसे में ‘विकसित भारत का स्वप्न’ जैसे शब्द-युग्म मन में कौतूहल पैदा करता है। जातिवाद, वर्गवाद, सम्प्रदायवाद के साथ ही बाजारवाद और आतंकवाद जैसी समस्याओं से जूझते हुए विकसित भारत का स्वप्न देखना कितना सुखद लगता है! यह भारत की आम जनता को यह उसी प्रकार रोमांचित करता है, जिस प्रकार गुलामी के दौरान आजादी के सुनहरे सपने रोमांचित कर रहे थे! आजादी के बाद उन आमजनों के सपने कितने पूरे हुए, यह किसी से छिपा नहीं है। आजादी के अठहत्तर साल बाद भी देश की सत्तर प्रतिशत आबादी मुफ्त का सरकारी अनाज खाने को अभिशप्त है। यह आबादी अपनी तमाम बुनियादी सुविधाओं के लिए सरकार पर आश्रित है। यह आबादी रोटी, कपड़ा और मकान के साथ ही अशिक्षा और बेरोजगारी की मार से त्रस्त है!

हम इस कल्पना से हैरान हो जाते हैं कि आम आदमी की बुनियादी जरूरतों को पूरे किये बिना, विकसित भारत का स्वप्न कैसा होगा? जिस तरह देश में पूंजी का केन्द्रीकरण हो गया है। देश की सत्तर प्रतिशत संपत्ति पर दो से तीन प्रतिशत लोग कुंडली मारकर बैठे हुए हैं। ये दिनो-दिन अमीर होते जा रहे हैं और गरीबों की गरीबी उत्तरोत्तर बढ़ती जा रही है। अमीरों की संपत्ति साल में दोगुनी हो जाती है। यह विचारणीय है कि यह कैसे हो रहा है? यह किनके हिस्से की संपत्ति है! आजादी से मोहभंग के बाद मुझे लगता है कि विकसित भारत में ये आम जन कहीं और हाशिए पर न चले जाए! ऐसा लग रहा है कि भारत की आत्मा की उपेक्षा कर, उसे बाहरी चमक- दमक के आधार पर विकसित बनाने की योजना बनाई जा रही है।

यह सर्वविदित है कि भारत गाँवों का देश है। जब तक गाँवों का चहुंमुखी विकास नहीं होगा, किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं होगा, कृषि आधारित ग्राम्य उद्योगों को बढावा नहीं मिलेगा, गाँव को पूर्ण आत्मनिर्भर नहीं बनाया जाएगा, तब तक विकसित भारत का स्वप्न व्यर्थ होगा। हमें यह समझना होगा कि गाँव को शहर बना देना, गाँव का विकास नहीं है, बल्कि यह उसके अस्तित्व का सर्वनाश है। देश में हर मिनट एक किसान आत्महत्या कर रहा है, हर पल कहीं न कहीं किसी अबोध बालिका का बलात्कार हो रहा है, उस देश के बारे में कोई क्या सोच सकते हैं! जिस देश में आज भी जाति और धर्म के नाम पर लोग पागल बने घूम रहे हैं, उस देश का विकसित बनाना कितना कठिन होगा!

1990 के दशक में वैश्विक उदारीकरण के परिणामस्वरूप बाजार को समृद्धि मिली। इस बाजार ने पूँजी के एकत्रीकरण पर बल दिया, जिसकी परिणति त्रासदीपूर्ण है।आज शहरों के साथ ही गाँवों में बड़े- बड़े साॅपिंग माॅल खुल रहे हैं। परिणामस्वरूप कम पूंजी वाले छोटे- छोटे दुकानदारों का जीवन संकटग्रस्त हो गया है। निश्चय ही इसे ‘सबका साथ सबका विकास’ नहीं कहा जा सकता है!

भारत को विकसित बनाने के नाम पर जंगलों की अंधाधुंध कटाई हो रही है। चमचमाती सड़कें बन रही हैं। रेलवे ट्रैक बिछाए जा रहे हैं। सर्वत्र कंक्रीटों का अंबार खड़ा हो रहा है। इसे ही हम विकास का मानक बना बैठे हैं। और सड़क के किनारे पेड़ लगाकर वातावरण को शुद्ध करने की चेष्टा कर रहे हैं। विदित हो कि सड़क के किनारे लगे पेड़ कभी जंगल का विकल्प नहीं हो सकता। आए दिन देश के मेट्रो सिटी में सांस लेना मुश्किल हो रहा है। क्या ऐसे में विकसित भारत का स्वप्न देखा जा सकता है! ग्लोबल वार्मिंग का संकट बढ़ता ही जा रहा है। इसके कारण ग्लेशियर तेजी से पिघल रहा है। परिणामस्वरूप समुद्र के जलस्तर में प्रत्येक वर्ष वृद्धि हो रही है। वह दिन भी दूर नहीं कि जब समुद्र किनारे का भूखंड जल समाधि ले लेगा। हम प्रकृति का दोहन करके विकसित भारत का स्वप्न नहीं देख सकते!

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लेखक, श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) में हिन्दी विभाग के सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।

ईमेल – umesh.kumar.sharma59@gmail.com

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