कुंवर नारायण की कविताओं में मिथकीय चेतना

हिन्दी के नये कवियों में कुंवर नारायण का नाम अत्यन्त सम्मान से लिया जाता है। पांचवें दशक में प्रकाशित होने वाली प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘युग-चेतना’ का सम्पादन करते हुए कुंवर नारायण साहित्य जगत में चर्चित रहे। इसके अतिरिक्त इन्होंने ‘आजकल’, ‘नया प्रतीक’ तथा ‘छायानट’ आदि पत्रिकाओं के सम्पादन से भी संबद्ध रहे हैं। कुंवर नारायण की कविताएँ अज्ञेय द्वारा सम्पादित ‘तीसरा सप्तक’ में संकलित हैं। इसके अतिरिक्त उनकी अन्य रचनाएँ हैं-‘चक्रव्यूह’, ‘परिवेश हम तुम’, ‘आत्मजयी’, ‘अपने सामने’, ‘कोई दूसरा नहीं’ इत्यादि।

कवि कुंवर नारायण ने चेकोस्लोवाकिया, पोलैण्ड, रूस एवं चीन का भ्रमण किया, जिसने इनकी विचारधारा को बहुत अधिक प्रभावित किया। परिणामतः इनकी कविता में वैज्ञानिक दृष्टिकोण एवं विचार वैभव की प्रमुखता दृष्टिगत होती है, किन्तु पाश्चात्य चिन्तन से उनके काव्य की मूलप्रेरणा अप्रभावित रही है। उनकी कविता के स्वरूप पर विचार करते हुए प्रसिद्ध कवि बालकृष्ण राव ने लिखा है, “श्री कुंवर नारायण की कविता उस अधुनातन भारतीय व्यक्तित्व की प्रतिछवि है, जो मूलतः भारतीय होते हुए भी अध्ययन, चिन्तन और सम्भवतः उससे अधिक स्थूल सम्पर्कों के प्रभाव से बहुत कुछ देशेतर गुणों, रुचियों और प्रवृत्तियों से समन्वित हो गया है। सहसा ऐसा लग सकता है कि कुंवर नारायण पर न केवल अंग्रेजी साहित्य का गहरा प्रभाव पड़ा, बल्कि उनकी काव्य- प्रेरणा ही सीधे अंग्रेजी साहित्य से आई है। परंतु जहाँ तक मैं समझ पाया हूँ, यह प्रभाव केवल प्रभाव ही है, उनके काव्य की मूल-प्रेरणा भारतीय ही है।”

कुंवर नारायण मानवीय मूल्यों की तलाश में रहने वाले कवि हैं। एक ओर तो उनकी कविता में आधुनिक भावबोध है, तो दूसरी ओर तर्क, विचार एवं चिन्तन की प्रधानता होने से उसमें वैज्ञानिक बोध भी समाविष्ट हो गया है। निश्चय ही उनकी कविता सतही एवं व्यर्थ के उलझाव से युक्त नहीं है, अपितु उसमें संयम एवं साफ सुथरापन है। उनका शिल्प विषय के अनुरूप है तथा भाषा में तत्समता है।

कुंवर नारायण की कविताई की प्रसिद्धि का आधारहै -‘मिथक’। ‘मिथक’ का सम्बन्ध अंग्रेजी के ‘मिथ’ (Myth) शब्द से है, जो यूनानी भाषा के ‘मायथास’ (Mythas) से व्युत्पन्न है। ‘मायथास’ का अर्थ है- ‘आप्तवचन’ या ‘अतर्क्य कथन’। मिथक का सत्य सांसारिक सत्य को मानवीय संवेदना की शब्दावली में अभिव्यक्त करता है। सामान्य रूप में ‘मिथक’ का अर्थ है- ‘ऐसी परम्परागत कथा, जिसका सम्बन्ध अतिप्राकृत घटनाओं और भावों से होता है। समष्टि मन द्वारा प्रकृति के तत्त्वों और घटनाओं के मानवीकरण की यह अचेतन-प्रक्रिया ही मिक रचना का मूल है। ब्लैकमर के अनुसार, “मिथक मानवीय ज्ञानकोश के प्रतीकात्मक आलेख हैं। मिथक कल्पना-प्रधान कथा के रूप में होता है, जिसकी प्रतीति सत्य के रूप में होती है।

अरस्तू ने ‘मिथक’ का प्रयोग कथा- विधान के अर्थ में किया है। हिन्दी में मिथक शब्द का प्रयोग पुराकथाओं या उन परम्परागत पुराण कथाओं के लिए होता है, जिनका सम्बन्ध अतिप्राकृत घटनाओं और भावों से होता है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार, “मिथक मूलतः आदिम मानव के समष्टि मन की सृष्टि है, जिसमें चेतन की अपेक्षा अचेतन-प्रक्रिया का प्राधान्य रहता है।” मिथक का सत्य सर्वथा आत्मपरक एवं मनोवैज्ञानिक होता है तथा उसमें मानव और प्रकृति के एकात्य की भावना निहित रहती है। मियक का रूप कथात्मक होता है और उसकी रचना में कल्पना का योग अवश्य रहता है।

आधुनिक साहित्य के अनेक प्रबन्ध काव्यों में मियक का प्रयोग किया गया है। इनमें से प्रमुख काव्य कृतियाँ हैं-‘अंधायुग’, ‘कनुप्रिया’ (धर्मवीर भारती), ‘संशय की एक रात’ (नरेश मेहता), ‘आत्मजयी’ (कुंवर नारायण) हुई है। कुंवर नारायण के ‘आत्मजयी’ नामक प्रबन्धकाव्य का उपजीव्य ‘कठोपनिषद्’ का नचिकेता प्रसंग है। यहाँ नचिकेता का पौराणिक व्यक्तित्व नहीं उभरता, अपितु वह कवि के आधुनिक चिन्तन का प्रतीक पात्र बन गया है। राजा वाजश्रवा एक महान यज्ञ का आयोजन करते हैं और यज्ञ कर्म सम्पन्न करने वाले शताधिक ऋत्विजों को दुग्धविहीन कृशकाय बूढ़ी गायें दक्षिणा के रूप में प्रदान करना चाहते हैं। उनका पुत्र नचिकेता बार-बार अपने पिता से आग्रह करता है कि बूढ़ी, दुग्धहीन गायें दक्षिणा में देना उचित नहीं है। आपको उन्हें स्वस्थ, दुधारू गायें देनी चाहिए। वाजश्रवा प्रचंड क्रोधावेश में नचिकेता को शाप देते हैं -‘तुझे यमराज को देता हूँ।’ नचिकेता यमराज के द्वार पर तीन दिनों तक कृच्छ साधनारत भूखा-प्यासा बैठा रहता है। अन्ततः यमराज के आगमन पर नचिकेता उनसे जन्म, मरण, आत्मा, ब्रह्म, मरणोपरान्त जीवन के विषय में जटिल प्रश्न पूछकर उनके उत्तर जानना चाहता है। यमराज इन प्रश्नों के उत्तर न देकर उससे कुछ और मांगने को कहते हैं, किन्तु नचिकेता अपने हठ से टस से मस नहीं होता। उसे भौतिक सुखों की लालसा नहीं है, वह अपने प्रश्नों के उत्तर जानना चाहता है। हारकर यमराज उससे प्रसन्न होते हैं और उसे सत्पात्र समझकर उसके प्रश्नों के उत्तर देते हैं। कृतार्थ एवं ज्ञानी नचिकेता पुनः भू-मण्डल पर लौट आता है।

कवि ने यहाँ नचिकेता को आधुनिक चिन्तक का प्रतीक माना है, जबकि वाजश्रवा उस पुरानी पीढ़ी का प्रतीक है, जो ठहराव से युक्त है। ‘आत्मजयी’ मूलतः आधुनिक चेतना का काव्य है। इसमें कथा स्वल्प है, जिसमें चिन्तन प्रमुख है, घटनाक्रम गौण है। आत्मजयी के विभिन्न खण्ड आधुनिक चिन्तक के विभिन्न आयाम हैं। आत्मजयी के बिम्ब मूलतः बौद्धिक हैं। इसमें जिन प्रश्नों के उत्तर तलाशे गए हैं, वे आधुनिक मानव के जीवन से जुड़े हुए प्रश्न हैं। स्वयं कवि के शब्दों में, “आत्मजयी में ली गई समस्या नयी नहीं, उतनी ही पुरानी है, जितना जीवन और मृत्यु सम्बन्ध में मनुष्य का अनुभव।” कवि नये चिन्तन से प्रभावित होकर भी जीवन को पुराने सन्दर्भ में देखना चाहता है तथा उसे भारतीय दर्शन एवं अध्यात्म से जोड़ना चाहता है।

आज का आदमी अपने जीवन की सार्थकता इस बात में समझता है कि वह भीड़ में भी पहचान लिया जाय। स्वतन्त्रता उसकी प्रमुख चेतना है और लोग उसके अस्तित्व को स्वीकार कर लें, तभी उसका जीवन सार्थक है। व्यक्तित्व के प्रति जागरूकता और अस्तित्व की सार्थकता उसे स्वस्थ मूल्यों के प्रति अग्रसर करती है। ‘नचिकेता’ के माध्यम से कवि ने इसी तथ्य को ‘आत्मजयी’ में अभिव्यक्त किया है। कुंवर नारायण की मान्यता है कि वैयक्तिक सुख-सुविधाओं के लिए जीना जीवन का चरम लक्ष्य नहीं हो सकता और विचारशील मानव के लिए तो कदापि नहीं। नचिकेता का विरोध उस वस्तुवादी दृष्टिकोण से है जो आज का सबसे बड़ा जीवन मूल्य बना हुआ है। दुग्धविहीन कृशकाय गायें देकर यह का यश एवं फल लेने की कामना का विरोध नचिकेता करता है। भले ही यह कार्य उसके पिता ने ही क्यों न किया हो।

कवि नचिकेता के माध्यम से जीवन मूल्यों की खोज करना चाहता है। आत्मजयी का नचिकेता निराशा से उपर उठकर भी उसमें उलझा हुआ है। नचिकेता उस भौतिकता की विरोध करता है जो आज सम्पूर्ण मानव जाति पर हावी है। भारतीय दर्शन में मृत्यु को शांति-प्रदायिनी माना गया है, जबकि अस्तित्ववादी जीवन-दर्शन में मृत्यु को जीवन प्रदायिनी माना गया है। आत्मजयी में कवि ने यह प्रतिपादित करने का प्रयास किया है कि केवल सुख पाना ही जीवन का उद्देश्य नहीं है, अपितु एक सार्थक जीवन जीना इसका उद्देश्य है। कवि यहाँ स्तित्ववाद से प्रभावित है। जीवन की सार्थकता किन मूल्यों में है! क्या वह व्यक्ति-स्वातंत्र्य के धरातल पर है या उसके लिए किसी अन्य वृहत् मूल्य की खोज करनी पड़ेगी। कवि का कथन है कि आज व्यक्ति भीड़ में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत है। दूसरे लोग उसके अस्तित्व को स्वीकारें, तभी वह अपने जीवन को सार्थक समझता है। यही वह बिन्दु है, जहाँ नचिकेता का चिन्तन ‘आम आदमी’ के चिन्तन से जुड़ जाता है। नचिकेता ‘आत्मजयी’ इस अर्थ में है कि वह मृत्यु का वास्तविक अनुभव करके जीवन को जीत लेता है और अपने अस्तित्व को सार्थक बना देता है, निराशा को वह जीत लेता है। व्यक्तित्व के प्रति जागरूकता उसके अस्तित्व की सार्थकता का व्यक्त करती है।

निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि ‘आत्मजयी’ में पौराणिक मिथकों, पात्रों का उपयोग करते हुए कवि ने जीवन के तत्व पर गम्भीर विचार व्यक्त करते हुए अपने आधुनिकबोध को चिन्तन के धरातल पर प्रस्तुत किया है और इसमें उसे पर्याप्त सफलता भी प्राप्त हुई है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *