हिन्दी कहानी लेखन- परंपरा में सबसे अधिक चर्चित, लोकप्रिय एवं विवादास्पद कहानी के रूप में ‘कफन’ की चर्चा की जाती है। एक ओर तो कथ्य और शिल्प की दृष्टि से इसे हिन्दी की श्रेष्ठ कहानी कहते हैं, दूसरी ओर आलोचकों का एक ऐसा समूह भी है, जो इसे श्रेष्ठ कहानी मानने का पक्षधर नहीं है। इस कहानी पर तरह- तरह से विचार किया गया है। कुछ आलोचकों ने इसे दलित दंश की अभिव्यक्ति कहा है, तो कुछ के लिए यह तद्युगीन सामाजिक-आर्थिक कुव्यवस्था से उत्पन्न निठल्लेपन की अभिव्यक्ति है। कोई इस कहानी को दलित विरोधी मानते हैं, तो कोई स्त्री-विरोधी। कुछ आलोचकों के लिए यह आदर्शोन्मुख यथार्थवादी कहानी है तो कुछ के लिए घोर यथार्थवादी। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि कफन प्रेमचंद की अधूरी कहानी है।
विदित हो कि ‘कफन’ प्रेमचंद की लगभग अंतिम कहानी है। यहाँ तक आते -आते वे रचनात्मक उत्कर्ष पर पहुँच चुके थे। ऐसे में यह कहानी अनेक दृष्टि से विचारणीय होनी ही चाहिए। यह कहानी सर्वप्रथम ‘जातीया’ नामक उर्दू पत्रिका के दिसंबर अंक में 1935 ई. में प्रकाशित हुई थी। माना जाता है कि ‘जातीया’ के संपादक प्रो. मो. आकिल, जो कि उस समय जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, दिल्ली में उर्दू विभाग में प्रोफेसर थे। उनके ही आग्रह पर प्रेमचंद ने यह कहानी लिखी थी। प्रेमचंद की मृत्यु 1936 ई. में होने के उपरांत यह कहानी ‘चाँद’ पत्रिका में हिन्दी में प्रकाशित हुई। तब से लेकर अबतक लगभग 90 वर्ष से इस पर विवाद – प्रवाद का सिलसिला चला आ रहा है।
कफन कहानी के कथानायक घीसू और माधव हैं, जो जाति से चमार (तथाकथित दलित) हैं। ये दोनों निकम्मे, कामचोर, गरीब और फटेहाल हैं। ये कर्जदार हैं, परंतु तमाम सांसारिक चिंताओं से मुक्त हैं। कहानी में घीसू और माधव के निकम्मेपन का सटीक कारण दिया गया है। प्रेमचंद लिखते हैं- जिस समाज में रात- दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से कुछ बहुत अच्छी न थी और किसानों के मुकाबले वे लोग, जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना जानते थे, कही ज्यादा संपन्न थे, वहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी।’
हमें कफन का विवेचन करते समय कुछ बातों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए, प्रथम यह कि प्रेमचंद गुलाम भारत के लेखक थे, दूसरी बात कि वे ब्राह्मणवाद के समर्थक नहीं थे और तीसरी बात कि कफन तक आते- आते वे वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध और रचनात्मक स्तर पर परिपक्व हो चुके थे।
कफन कहानी में घीसू और माधव के माध्यम से प्रेमचंद ने भारतीय समाज के अतीत, वर्तमान और भविष्य को एक साथ प्रस्तुत किया है। यहाँ ठाकुर के भोज का वर्णन आह्लादित होकर घीसू माधव के सामने करता है कि ‘वह भोज नहीं भूलता। तब से फिर उस तरह का खाना भरपेट नहीं मिला। लड़की वालों ने सबको भरपेट पूरियाँ खिलाई थीं। सबको। छोटे- बड़े सबने पूरियाँ खाईं और असली घी की। चटनी, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, दही, चटनी, मिठाई…… आदि।’ यह वृत्तांत वस्तुत: हमारे देश का गौरवमयी अतीत का रेखांकन है, जब सबको भरपेट भोजन मिलता था। घीसू के कथन में बार- बार ‘भरपेट’ शब्द का प्रयोग किया गया है और उसपर काफी जोर दिया गया है, क्योंकि उसके बाद घीसू को कभी भरपेट भोजन नहीं मिला। माधव बड़ी उत्सुकता से पूछता है कि ‘तुमने बीस पूरियाँ खाई होगी…? मैं होता तो पचास खा जाता।’ बीस की जगह पचास का प्रयोग उसके भीतर की अनवरत अतृप्ति और उद्दाम बुभुक्षा को अभिव्यक्त करता है। यह प्रसंग भारत के सुनहरे और गौरवमय अतीत को रेखांकित करता है।
दूसरी ओर घीसू और माधव का वर्तमान यह है कि वह भूख से बिलबिला रहा है। अंग्रेजी शासनकाल में जो भारतीय समाज दशा हुई थी! इसका इससे बेहतर चित्रण कहीं नहीं मिलेगा! यहाँ तद्युगीन विपन्नावस्था का यथार्थपूर्ण चित्रण है। बाप और बेटा अलाव में आलू भून रहा है और आलू के बड़े भाग को अपने हलक में उतारने के चक्कर में प्रसव-पीड़ा से कराहती हुई बुधिया को देखने तक नहीं जाता। वे तरह- तरह के बहाने बनाते हैं। यह वस्तुत: हमारे देश की वर्तमान दशा थी, जब भूख की चरमावस्था ने घीसू और माधव जैसे निरीह प्राणी को अमानवीय और संवेदनहीन बना दिया था। दोनों की करतूत कहीं से भी अस्वाभाविक नहीं लगता है, चूँकि बाप ने अपने जीवन में फकत एक बार भरपेट खाया और बेटे को अब तक वह भी नसीब न हो सका। ऐसे में कोई घर की औरत के कफन के पैसे से खाया- पिया तो यह बहुत चकित नहीं करता…!
यह अलग सवाल है कि बुधिया के प्रति उसके ससुर और पति की इतनी अमानवीयता पाठकों को खलती है। इस संदर्भ को लेकर कुछ दलित चिंतक बेतलब का अर्थ निकाल लेते हैं। ऐसे चिंतकों का मानना है कि प्रसव- पीड़ा के कराहती हुई बुधिया के प्रति घीसू और माधव इसलिए संवेदनहीन है, क्योंकि बुधिया के गर्भ में पल रहा शिशु किसी ब्राह्मण या ठाकुर का हो सकता है। जबकि प्रेमचंद ने इसका कोई संकेत नहीं दिया है। बात ऐसी भी नहीं है कि प्रेमचंद को ऐसे संकेतों से कोई परहेज हो। ‘गोदान’ में उन्होंने सिलिया चमारिन के गर्भ में ब्राह्मण- शिशु को पलते हुए दिखाया है। घीसू और माधव की इस मनोवृत्ति का मुख्य कारण केवल भूख की चरम अवस्था है, जहाँ मानवीय संवेदना पीछे छूट जाती है।
कफन कहानी का अंतिम दृश्य भारत की आजादी का काल्पनिक जश्न है। इसे व्यापक संदर्भ में देखना चाहिए। चूँकि यह आजादी न केवल अंग्रेजी दासता से है, बल्कि यह आजादी है- सामाजिक रूढ़ियों से, परंपराओं से। यह आजादी है- धार्मिक- सांस्कृतिक मान्यताओं से। कहानी एक ज्वलंत प्रश्न को सामने लाती है कि जब भूख अपने उत्कर्ष पर हो तो परंपरा का निर्वहन करना कितना असंगत है! संवेदवशील पाठकों को लगता है कि घीसू और माधव बेहद अमानवीय और संवेदनहीन हैं, उन्हें घर की स्त्री के कफन के पैसे से मदिरापान नहीं करना चाहिए!परंतु घीसू और माधव कफन के खिलाफ जो तर्क पेश करता है, वह अत्यंत सार्थक प्रतीत होता है। यहाँ कफन के खिलाफ उन्होंने तीन तर्क दिये हैं….
प्रथम- “लाश उठते हुए रात हो जाएगी। रात को कफन कौन देखता है!”
दूसरा – “कैसा बुरा रिवाज है कि जिसे जीते जी तन ढंकने के लिए चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने के बाद नया कफन चाहिए!”
तीसरा -“कफन लाश के साथ जल ही तो जाता है!”
प्रेमचंद ने एक जगह उचित ही कहा है कि भारतीय संस्कृति मृत्युसेवी संस्कृति है। यहाँ जीवन को बचाने से अधिक मृत्यु को सजाने- सँवारने पर जोर दिया जाता है। यहाँ लोक से अधिक परलोक की चिंता सताती है। इस समाज में बीमारों को ईलाज के लिए पैसे कोई नहीं देता, पर कफन के पैसे मिल जाते हैं। बेटी के विवाह के लिए कोई नहीं देता, पर मृत्युभोज का इंतजाम हो जाता है। कफन में घीसू की यही पीड़ा झलकती है। वह कहता है- “यही पाँच रुपये पहले मिलते, तो कुछ दवा- दारू कर लेते।”
हम समझते हैं कि कफन व्यक्ति स्वातंत्र्य की पहली कहानी है, जब बाप और बेटा घर की स्त्री के कफन के पैसे से बेखौफ होकर शांतिपूर्वक तली हुई मछलियाँ, कलेजियाँ खाते हैं और मदिरा पीते हैं, तो वे धर्म और समाज की तमाम परंपराओं और रूढ़ियों को उठाकर पी जाते हैं। वह तृप्ति के चरम तक पहुँचते हैं। दूसरों के खेत से गन्ने चुराकर रात भर चूसने वाला, मटर की बालियाँ भूनकर रात काटने वाला, आलू के बड़े फाँक को अपने हलक में उतारने के लिए द्वन्द्व करने वाले आदमी किसी भिखारी को पत्तल उठाकर दे रहा है! कितना अद्भुत दृश्य है। देने के सुख को वह पहली बार महसूस कर रहा है! निश्चय ही वह सामाजिक- सांस्कृतिक मान्यताओं की ताख पर रखकर व्यक्ति स्वातंत्र्य की खोज करता है। डाॅ. बच्चन सिंह इस कहानी के बारे में कहते हैं- “यह कहानी जीवन का ही कफन नहीं सिद्ध होती, बल्कि संचित आदर्शों, मूल्यों, आस्थाओं और विश्वासों का भी कफन सिद्ध होती है।”
बाप और बेटा पी- पाकर मस्त हो जाते हैं। प्रेमचंद लिखते हैं- ‘फिर दोनों नाचने लगे। उछले भी, कूदे भी। गिरे भी, मटके भी। भाव भी बनाए। अभिनय भी किए…..!’ निश्चय ही कहानी के अंत में वे कबीर के जिस पद को गाते हैं- “ठगिनी क्यों नैना झमकावे!” वह सही अर्थों में व्यक्ति- स्वातंत्र्य का सूक्ति वाक्य सिद्ध होता है।
*********************
लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक एवं अध्यक्ष हैं।