प्रेमचन्द का हिन्दी कथा- साहित्य में शीर्ष स्थान है। उनका जन्म सन् 1880 ई० में बनारस से पाँच-छह मील दूर लमही नामक गाँव में हुआ था। उनका बचपन का नाम ‘धनपतराय’ था। चाचा उन्हें स्नेह से नवाबराय कहा करते थे। पिता का नाम मुंशी अजायबराय और माता का नाम आनन्दी देवी था। खेती- पथारी उनके परिवार का मुख्य पेशा था, किन्तु निर्धनता के कारण परिवार का पालन-पोषण अत्यन्त कठिनाई के साथ हो पाता था। विवश होकर पिता को नौकरी करनी पड़ी। उस समय उनके पिता को बीस रूपया मासिक वेतन मिलता था। यद्यपि पिता नौकरी कर रहे थे, तथापि उनके घर का वातावरण किसानों का- सा था। इसीलिए प्रेमचन्द को बाल्यावस्था से ही न केवल कृषक जीवन के वातावरण से परिचय प्राप्त हुआ, बल्कि निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पालन-पोषण होने के कारण जीवन की कठिनाइयों का भी अनुभव हुआ और विपत्तियाँ झेलने की शक्ति मिलीं। उनकी छोटी-छोटी अभिलाषाएँ भी प्रायः अपूर्ण रह जाती थीं। अपूर्ण अभिलाषाओं और दरिद्र जीवन को लेकर वे जीवन-पथ पर अग्रसर हुए। पाँच वर्ष की अवस्था से उनकी शिक्षा प्रारम्भ हुई। पुरानी पीढ़ी के होने के कारण उनके पिता को उर्दू के प्रति अत्यधिक रुचि थी। अतएव, प्रेमचन्द को भी प्रारम्भ में उर्दू की शिक्षा दी गयी। धीरे-धीरे प्रेमचन्द इस भाषा पर अधिकार प्राप्त करने लगे। जब वे आठ वर्ष के थे, तो छह महीने की बीमारी के पश्चात् उनकी माता का देहावसान हो गया। इस प्रकार अपूर्ण अभिलाषाओं और दरिद्र जीवन सहन करने के साथ-साथ वे बचपन से ही मातृ-स्नेह से वंचित रह गये। इन अनुभवों की अभिव्यक्ति आगे चलकर उनके साहित्य में भी हुई। चार वर्ष बाद उनके पिता की बदली जीमनपुर हो गयी। वहाँ उनके पिता ने एक बहुत ही गन्दा मकान डेढ़ रुपया मासिक किराये पर लिया। मकान कितना गन्दा रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि वे स्वयं एक तम्बाकू वाले के यहाँ तम्बाकू के पिण्डों के पीछे बैठकर ‘तिलिस्म -इ होशरुबा’ पढ़ा करते थे। यह बृहत् तिलिस्मी रचना उन्होंने बड़े चाव से पढ़ी। तेरह वर्ष की अवस्था तक प्रेमचन्द ने उर्दू के कई प्रसिद्ध ग्रन्थ पढ़ डाले थे। सरशार के ‘फसाने आजाद’ का तो उन्होंने आगे चलकर ‘आजाद कथा’ के नाम से हिन्दी में अनुवाद भी किया। वे निर्धन थे, किन्तु परिश्रम और ईमानदारी के साथ रूपया पैदा कर उपन्यास पढ़ते थे। कठिनाइयों से वे कभी घबराये नहीं। इन सब आदर्शों के उदाहरण उनके साहित्य में बराबर मिलते हैं। कठिनाइयों की भीषणता जितनी बढ़ती गयी, उतना ही उनका अध्ययन- प्रेम बढ़ता गया। यहाँ तक कि जब कुछ पुराणों के उर्दू अनुवाद प्रकाशित हुए तो वे भी उन्होंने पढ़ डाले।
जीवन के पथरीले और कंटकपर्ण, ऊबड़-खाबड़ मार्ग पर चलते हुए प्रेमचन्द अपने लहू-लुहान पैर के साथ निरन्तर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते गये। वे टयूशन पढ़ाते थे, अँधेरी कोठरी में तेल की कुप्पों से पढ़ते थे, किन्तु शिक्षा प्राप्त करने में शिथिलता प्रदर्शित न करते थे। जैसे-तैसे उन्होंने 1910 ई० में इण्टर की परीक्षा में सफलता प्राप्त की। इसी समय उन्होंने महाजनों के कटु व्यवहार का भी अनुभव किया। निर्धनता के कारण उन्हें महाजनों से उधार लेना पड़ता था। उस समय गाँव-गाँव में महाजनों की तूती बोलती थी। इसी रुपये के बल पर से गरीबों का खून चूसते और अत्याचार करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रेमचन्द ने व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर ही महाजनों का अपने साहित्य में किया।
अनेकानेक कठिनाइयों का सामना करते हुए भी प्रेमचन्द ने आत्मगौरव की रक्षा की। उनके विचार बड़े ही उदार थे। उनके छोटे भाई का नाम श्री महताब राय था। वे विमाता के पुत्र थे। प्रेमचन्द बिलकुल सीधे-साधे ढंग से रहते थे, पर भाई को अच्छा से अच्छा खिलाने-पहनाने में जरा भी संकोच नहीं करते थे। उनका यह गुणगान महताब रायजी बहुधा किया करते थे। शिवरानी देवीकृत ‘प्रेमचन्द पर में’ (1944 ई. ) द्वारा उनके व्यक्तित्व पर बड़ा अच्छा प्रकाश पड़ता है। वे अपने समय के सभी प्रगतिशील विचारों के समर्थक थे और उनकी सूक्ष्म दृष्टि सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, साहित्यिक आदि सभी क्षेत्रों तक व्याप्त थी। कुछ लोगों ने उन्हें साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से देखने और परखने की चेष्टा की है। यह प्रेमचन्द के प्रति घोर अन्याय है। उनके साहित्य का अध्ययन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि वे संकीर्ण साम्प्रदायिकता से बहुत ऊपर थे। उन्होंने विचार स्वातन्त्र्य की रक्षा करने और लेखक की स्वाधीनता को बनाये रखने की बराबर चेष्टा की। अंग्रेजी सरकार ने कई बार उनका दमन करना चाहा, किन्तु वे कभी भी नतमस्तक न हुए। कुछ दिनों तक उन्होंने काशी विद्यापीठ में, जो एक राष्ट्रीय शिक्षण संस्था है, अध्यापन कार्य किया। लेखन कार्य के अतिरिक्त उन्होंने ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी द्वारा प्रकाशित ‘मर्यादा’, ‘माधुरी’ और ‘हंस’ नामक पत्रों का समय-समय पर सम्पादन-भार ग्रहण कर साहित्य के उच्च आदर्शों की स्थापना की। उर्दू में नवाबराय (जो धनपतराय नाम का एक प्रकार में अनुवाद ही है) के नाम से लिखते थे। कहा जाता है, उन्हें प्रेमचन्द’ नाम ‘जमाना’ पत्रिका के सम्पादक दयानारायन निगम ने दिया था। अंग्रेज सरकार की धमकियों के बाद ही उन्होंने प्रेमचन्द नाम से लिखना शुरू किया था।1936 ई० में रोग-सय्या पर पड़े रहने पर भी उन्होंने साहित्यकी सेवा की। खून की उलटी करते हुए प्रेमचन्द अपने अंतिम उपन्यास ‘मंगल सूत्र’ को रचा।
प्रेमचन्द ने राज और समाज के विविध संदर्भों पर कहानियाँ लिखी। उनकी कहानियों को लोकप्रिय होते देर न लगी। इसके साथ-साथ उनके जीवनी लेखक ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि जब उनकी बदली गोरखपुर हुई तो उन्होंने महावीरप्रसाद पोद्दार की प्रेरणा से ‘सेवासदन’ उपन्यास हिन्दी में लिखा। तब से वे हिन्दी में बराबर लिखने लगे और उनकी लोकप्रियता में भी निरंतर वृद्धि होती गयी। तदनन्तर उनके अनेक उपन्यास और कहानी-संग्रह हिन्दी में प्रकाशित हुए और हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ आदरपूर्ण स्थान प्राप्त करने लगीं। उन्होंने ‘रूठी रानी’ नामक ऐतिहासिक उपन्यास के साथ ही ‘कृष्णा’, ‘वरदान’, ‘प्रतिज्ञा’ आदि उपन्यास लिखे। इन्हें सन् 1900 ई० और 1906 ई० के बीच में लिखित रचनाओं के रूप में माना जा सकता है। हिन्दी में उनकी तीसरी औपन्यासिक कृति ‘सेवासदन’ है। इस उपन्यास का प्रकाशन गोरखपुर में सन् 1916 ई० में हुआ था। यद्यपि उसके रचनाकाल के रूप में सन् 1914 ई. का उल्लेख मिलता है। उसका एक प्राचीन संस्करण सन् 1918 ई० का भी है। ‘प्रेमाश्रम’ की रचना तो सन् 1918 ई० में हुई, किन्तु सन् 1922 ई. में यह उपन्यास कलकत्ता से प्रकाशित हुआ। ‘निर्मला’ 1923 ई० में लिखी गयी, किन्तु 1927 ई० में वह लखनऊ से छपी। 1928 ई० में उसका एक संस्करण इलाहाबाद में भी निकला। ‘रंगभूमि’ की रचना -तिथि 1924- 25 ई० है और सर्वप्रथम यह उपन्यास लखनऊ से प्रकाशित हुआ। लखनऊ से ही उसके कई और संस्करण निकल चुके हैं। रंगभूमि के पश्चात् ‘कायाकल्प’ 1926 ई० में और ‘गबन’ 1934 में प्रकाशित हुए। ‘कर्मभूमि’ और ‘गोदान’ क्रमशः 1932 ई० और 1936 ई० में बनारस से छपे प्रेमचन्द का अन्तिम उपन्यास ‘मंगल-सूत्र’ (1936 ई०) अपूर्ण है। प्रेमचन्द के कई उपन्यासों के सक्षिप्त संस्करण भी प्रकाशित हुए हैं। उपर्युक्त औपन्यासिक कृतियों के अतिरिक्त प्रेमचन्द के अनेक कहानी-संग्रह मिलते हैं, जिनमें कुल मिलाकर लगभग 300 कहानियाँ हैं। उनकी कहानियाँ ‘मानसरोवर’ नाम से आठ भागों में संकलित हैं।
प्रेमचन्द ने जिस समय कथा-साहित्य के क्षेत्र में पदार्पण किया, उस समय हिन्दी में कहानियों की तो कोई पुष्ट-परम्परा नहीं थी, किन्तु उपन्यासों की अपनी एक परम्परा थी, जो भारतेन्दु हरिश्चन्द्रकृत ‘पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा’ नामक उपन्यास से चली आ रही थी। नाटक की भाँति हिन्दी उपन्यास का जन्म भी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक आन्दोलनों की गोद में हुआ था। ‘पूर्ण प्रकाश और चन्द्रप्रभा’ में वृद्ध-विवाह का खण्डन किया गया है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के बाद अन्य लेखकों ने भी या तो सामाजिक तथा गार्हस्थ्य जीवन में सम्बद्ध कथानक चुने और अनेक व्यक्तिगत एवं सामूहिक दोषों का परिहार करने की चेष्टा की या भारतेन्दकालीन भारतीय पुरान के प्रथम चरण की भावना से प्रेरित होकर साहित्य, कला, शिल्प आदि के क्षेत्रों में देशी-विदेशी विद्वानों द्वारा की गयी खोजों के फलस्वरूप उत्पन्न आत्मगौरव की उदात्त भावना ग्रहण कर और राजनीतिक आन्दोलनों के फलस्वरूप उत्पन्न तत्कालीन राष्ट्रीय भावना से ओतप्रोत होकर ऐतिहासिक कथानकों के आधार पर मौलिक अथवा अनुदित उपन्यासों की रचना कर अपनी व्यक्तिगत आन या देश की आन पर मर मिटनेवालों के चित्र प्रस्तुत किये। उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यास लेखकों ने देश का भावी सामाजिक, धार्मिक और राजनीतिक मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की।
अपने युग के अनुसार नवीन पाश्चात्य शिक्षा के अपने दोष थे, किन्तु उस शिक्षा से कुछ लाभ भी हुआ, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता। एक लाभ था वैज्ञानिक दृष्टि का विकास। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से प्रेरित होकर उन्नीसवीं शताब्दी के उपन्यास लेखकों ने मध्ययुगीन पौराणिकता और तज्जनित कुरीतियों तथा कुप्रथाओं का उन्मूलन कर व्यक्तिगत एवं सामूहिक चरित्र की दृढ़ आधार शिला पर राष्ट्र की नींव स्थापित करनी चाही। प्रेमचन्द कम-से-कम अपनी प्रारम्भिक रचनाओं में प्रतिज्ञा’, ‘वरदान’, ‘सेवासदन’ और ‘निर्मला’ में उन्नीसवी शताब्दी के उपन्यास-लेखकों की परम्परा की एक जाज्वल्यमान कड़ी के रूप में थे किन्तु ज्यों-ज्यों समय व्यतीत होता गया। नये युग की नयी समस्याएँ ज्यों-ज्यों सामने आती गयीं। प्रेमचन्द का दृष्टिकोण भी निरन्तर व्यापक होता गया। उन्नीसवीं शताब्दी का समाज-सुधारवादी दृष्टिकोण ने अपनी अन्य रचनाओं ‘प्रेमाश्रम’, ‘रंगभूमि’, ‘कायाकल्प’ ‘कर्मभूमि’ और यहाँ तक कि ‘गोदान’ में भी नहीं पाये इतना अवश्य कहा जा सकता है कि उन्नीसवी शताब्दी की अपेक्षा प्रेमचन्द का दृष्टिकोण अधिक गहराई लिये हुए हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि हम उन्हें परम्परा से एकदम अलग नहीं कर सकते। उन्होंने अपने युग के अनुसार विकास अवश्य किया। एकदम नयी स्लेट पर उन्होंने लिखना आरंभ किया। यहाँ तक कि उपन्यास-कला की दृष्टि में भी उनके उपन्यास अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। किन्तु कला की दृष्टि से प्रेमचन्द ने बहुत शीघ्र अपनी मौलिकता प्रकट की। कथा संगठन चरित्र-चित्रण, कथोपकथन आदि की दृष्टि से वे अपने पर्ववर्ती लेखकों को पीछ छोड़कर आगे बढ़ गये। कहानियों में नि:सन्देह उन्होंने अपनी मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया।
समग्रत: कथा सम्राट प्रेमचन्द की कहानियों और उपन्यासों में भारतीय समाज का प्रतिबिंब अंकित है। उनके साहित्य को पढ़कर हम तद्युगीन भारत को संपूर्णता के साथ जान सकते हैं। सच में वे एक कालजयी कथाकार हैं।
सम्प्रति : सहायक प्राध्यापक
हिन्दी विभाग,
श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय,
सीतामढ़ी, बिहार
संपर्क : 8877462692