औरत न होने का दर्द : जीवन की व्याख्या करती कहानियाँ

मिथिलांचल के प्रेमचन्द कहे जाने वाले वरिष्ठ साहित्यकार रामबाबू नीरव हिन्दी के ऐसे प्रतिभासंपन्न कथाकार हैं, जो अपनी कहानियों में हमेशा मनुष्य, समाज और परिवार की तमाम समस्याओं, संकटों और चुनौतियों को उठाते रहे हैं। उनके रचनात्मक सरोकार अपने व्यापक परिप्रेक्ष्य में जीवन के बहुआयामी संदर्भों की व्याख्या करते हैं। वे बाहरी जीवन के जटिल यथार्थ को जितनी सघनता से व्यक्त करते हैं, उतनी ही सघनता और पूर्णता के साथ मानवीय भावनाओं तथा संवेदनाओं को भी उजागर करते हैं। उनकी कहानियों का विषय हमेशा सामाजिक मुद्दे रहे हैं, परंतु संबंधों का मनोविज्ञान भी वे अत्यंत गहराई के साथ अभिव्यक्त करते हैं। उनकी दृष्टि सुख- सुविधाओं, सम्पन्नताओं के बनिस्बत मानवीय समस्याओं और दुखों के पास आती है। दुःख, निराशा और व्यथा से उबरने की चेष्टा, कुछ न कर पाने की छटपटाहट और जीवन की सार्थकता सिद्ध करने का संकल्प उनके पात्रों में दिखाई पड़ता है। अति सामान्य पात्रों के माध्यम से भारतीय समाज की संघर्षशीलता और जिजीविषा को अभिव्यक्त करती हैं नीरव जी की कहानियाँ।           

‘औरत न होने का दर्द’ संग्रह में नीरव जी की कुल दस बहुचर्चित कहानियाँ – ‘औरत न होने का दर्द’, ‘रूपाली शहीद हो गई’, ‘औरत होने की सजा’, ‘उसके हिस्से का दर्द’, ‘थैंक यू मैडम’, ‘तुम धन्य हो अनुपमा’, ‘मृणालिनी’, ‘तस्लीमा बुआ’, ‘मुक्तिदाता’ तथा ‘गुलबदन’ संगृहीत हैं। इन कहानियों के माध्यम से कथाकार अपने समय के बहुआयामी मानव जीवन की यथार्थपरक व्याख्या करते हैं। इन कहानियों को समकालीन जीवन का आईना कहें, तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह कहानी – संग्रह कथाकार के अनुभवों की विपुलता, विविधता और चिंताओं को रेखांकित करता है। किन्नर की कही- अनकही जीवनानुभूतियों की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति करती हुई और समाज की कुंद पड़ी संवेदना को झकझोरती हुई कहानी ‘औरत न होने का दर्द’ अद्भुत कहानी है। कथ्य और संवेदना के स्तर पर यह ‘किन्नर विमर्श’ की प्रतिनिधि कहानी है। सभी के लिए शुभ होती हुई भी किन्नर, स्वयं अपने लिए कितना अभिशप्त होती है, इसे इस कहानी में निर्मला के माध्यम से देखा जा सकता है। ‘यह औरत नहीं, किन्नर है!’ सिद्ध होते ही कैसे अपने एक क्षण में पराये हो जाते हैं और वह तड़पती रह जाती है कि कोई कह दे कि वह किन्नर नहीं, एक औरत है! ‘औरत न होने का दर्द’ निर्मला के रोम- रोम से छलकता है। किस्सागोई तथा पत्रात्मक शैली के सहारे लिखी गई यह कहानी अपनी समीक्षा के नए सौन्दर्यशास्त्र की मांग करती है।            

गरीबों के स्वप्न में अक्सर रोटी ही क्यों आती है, चांद क्यों नहीं आ सकता। ‘रूपाली शहीद हो गयी’ शीर्षक कहानी में सच में एक गरीब की बेटी रूपाली चांद को पाने का स्वप्न देखती है। गरीब घर में पैदा होने वाली रूपाली माँ के साथ दिल्ली शहर में सब्जी बेचती है, और वह आई. ए. एस. बनने सपना देखती है। वह अपने बचे हुए समय का सदुपयोग कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निरन्तर संघर्ष करती है। कहानी की नायिका रूपाली निश्चय ही देश के लाखों साधनहीन विद्यार्थियों के लिए प्रेरणा- स्रोत है, जो अपने भाग्य और परिस्थितियों के नाम पर आँसू बहाने के बजाय अनथक योद्धा की भाँति जीवन की सारी शक्ति लगाकर लड़ाई लड़ती है। रूपाली अपनी संभावनाओं के उत्कर्ष तक पहुँचना चाहती है।अस्तित्ववाद की मान्यताएँ सत्य ही है कि मनुष्य वही बनता है, जो वह बनना चाहता है। प्रत्येक मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का लेखक है। वह ठान लें तो परिस्थितियाँ कुछ नहीं बिगाड़ सकती। कहानी में रूपाली अपनी कर्मठता और दृढ़संकल्प से आई. ए. एस. बन जाती है। यह अलग सवाल है कि भू- माफियाओं से लड़ती हुई, वह शहीद हो जाती है। वह भू-माफियाओं से उस जमीन को बचाना चाहती थी, जिस पर सदियों से ये गरीब लोग सब्जियाँ बेचकर अपना पेट पाल रहे हैं। भूमंडलीकरण और बाजारवाद की इस अंधी दौर में मानवीय संवेदना कितना कुंद हो गई है, यह इस कहानी में स्पष्ट दिखती है। नफे और नुकसान के मकड़जाल में फंसा हुआ आम आदमी की पीड़ा का यथार्थपरक उद्घाटन ही इस कहानी का रचनात्मक उद्देश्य है। यह कहानी पाठक के अंतर्मन को झकझोर देती है।             

भारत की स्वाधीनता वस्तुत: मुट्ठी भर लोगों की स्वाधीनता है। समाज के एक बड़े समुदाय के लिए बस एक राजनीतिक घटना सिद्ध हुई है। यह केवल सत्ता का हस्तांतरण प्रतीत होता है। तभी तो आजादी के 76 साल बाद भी भारतीय समाज में गरीब, दलित और स्त्रियाँ शोषण की चक्की में पिसने को अभिशप्त हैं।  यह पीड़ा तब कई गुणा बढ़ जाती है, जब कोई आदमी दलित भी हो और स्त्री भी, अर्थात- दलित स्त्री। ‘औरत होने की सजा’ इसी दर्द की मार्मिक अभिव्यक्ति है। कहानी में सतिया की बेटी फुलबा अमरेन्द्र ठाकुर की वासना का शिकार होती है। माँ नहीं चाहती कि यह मामला सार्वजनिक हो और फुलबा के विवाह में संकट उत्पन्न हो, परंतु कुछ दलित युवक चुप नहीं बैठना चाह रहे थे। मामला पंचायत पर जाकर अटकता है, लेकिन होता वही है – ढाक के तीन पात। पूरे गाँव के सामने उसे चरित्रहीन घोषित किया जाता है और एक प्रतिष्ठित युवक पर लांछन लगाने के आरोप में माँ और बेटी को पूरे गाँव में नंगा घुमाया जाता है। आखिरकार मीडिया से लेकर विरोधी पक्ष के लोग इस आड़ में अपनी- अपनी रोटियाँ सेंकते हैं। मीडिया के लोग इस घटना को सनसनीखेज बनाकर अपना टीआरपी बटोरते हैं, तो रघुवीर बाबू नामक एक आदमी अपने राजनीतिक कैरियर को चमकाता है। कहानी के अंत में चुनावी सफलता का जश्न मनाता है रघुवीर। और इसी क्रम में वह फुलबा का बलात्कार करता है। अबकी बार इस दर्द को भीतर ही भीतर पी जाती है फुलवा। वह कहती है कि ‘अबकी बार मैं माई से कुछ भी न कहूँगी।’ दलित और स्त्री – पीड़ा की यह साझी अभिव्यक्ति सहृदय पाठक के अंतर्मन को हिलाकर रख देता है।           

   सिमोन द बोअवार ने ठीक ही कहा था कि ‘स्त्री पैदा नहीं होती, बनायी जाती है।’ निश्चय ही स्त्री की उत्पत्ति उसी प्रकार होती है, जिस प्रकार पुरुष उत्पन्न होते हैं, परंतु परिवार और समाज उसे ठोक पीट कर स्त्री बना देते हैं। कहना न होगा कि देश की पुरुषवादी सामाजिक व्यवस्था में स्त्री महत्त्वहीन बनकर रह गई है। उसे समाज में दोयम दर्जा प्राप्त है। अक्सर पुरुषों की कमियाँ स्त्रियों पर थोप दी जाती हैं। इसी तरह के संदर्भों को उद्घाटित करती है कहानी- ‘उसके हिस्से का दर्द’। कहानी के केन्द्र में दिव्या नाम की स्त्री है, जो रूप और गुण से सम्पन्न है। संयोगवश उसका पति अविनाश नपुंसक है। परंतु परिवार और समाज के लोग दिव्या को ही बाँझ घोषित कर तरह-तरह से अपमानित करते हैं। अपने पति के मान- सम्मान को बनाए रखने के ख्याल से वह सबकुछ झेलती चली जाती है, परंतु बात तब हद से आगे गुजर जाती है, जब सास उसे बांझ कहकर घर से निकालने का निर्णय ले लेती है। आखिरकार अविनाश का सच माँ के सामने आता है, जिसके हिस्से का दर्द अबतक दिव्या झेल रही थी। कहानी का अंत बिल्कुल मौलिक अवधारणाओं के प्रतिपादन से होता है। कथानायक पौराणिक संदर्भों को उद्धृत करते हुए कुंती के तर्ज पर अपनी पत्नी का संसर्ग उसके ही प्रेमी से करवाकर संतानोत्पत्ति को वैध ठहराता है। यूं तो कहानी का यह प्रसंग हिन्दी कथा साहित्य के लिए सर्वथा नवीन नहीं है, चूँकि शिवमूर्ति ने अपनी एक कहानी ‘कुच्ची का कानून’ में इसका उद्घाटन कर दिया है कि ‘स्त्री धरती है, वह बीज जहाँ से भी ग्रहण करे, फसल धरती की ही होगी। अर्थात स्त्री धरती है, वह चाहे जिस पुरुष का वीर्य धारण करे, उस संतान पर हक स्त्री (माँ) का होगा। कहानी में प्रतिपादित संदर्भ निश्चय ही विचारणीय है।           

   ‘थैंक यू मैडम’ नीरव जी की एक ऐसी कहानी है जो भारत की पंचायती राज व्यवस्था के खोखलेपन को उजागर करती है। कहानी की शुरुआत एक ग्राम कचहरी से होती है, जहाँ लोग एक रिटायर्ड प्रोफेसर सदानन्द सिन्हा के खिलाफ पंचायत करने के लिए एकजुट हुए हैं। प्रोफेसर साहब सुकून का जीवन जीने के लिए गांव में बसने आया है। लेकिन आज वह एक अपराधी की भाँति खड़ा है। प्रोफेसर साहब का अपराध बस इतना है कि उसने धार्मिक चंदा से एकत्रित तीन लाख रूपये से एक गरीब आदमी महेन्द्र चौधरी के बेटे का ईलाज करवाकर जान बचाया है, जिसे नागेन्द्र चौधरी के आवारा बेटे ने शराब के नशे में गाड़ी से कुचल डाला था। पंचायत में प्रोफेसर को दोषी करार दिया जाता है और उसे तीन लाख रूपये वापस देने को कहा जाता है, परन्तु प्रोफेसर साहब एक भी पैसा देने से इंकार करते हैं। आखिरकार पुलिस आती है और प्रोफेसर साहब की रक्षा करती है। इस कहानी में सबसे शानदार बात यह है कि जो महिलाएँ आज तक पंच, सरपंच या मुखिया बनने के बाद भी  अधिकार और सम्मान नहीं पा सकी, उसे अधिकार दिलाया जाता है। पहली बार वह सही – गलत को समझकर फैसला सुनाती है। इस कहानी में एक साथ कई विमर्श उभरते हैं, जिससे यह कहानी खास बन जाती है।           

‘तुम धन्य हो अनुपमा’ एक ऐसी कहानी है, जो आज के समय में बेहद प्रासंगिक है। टूटते – बिखरते मानवीय संबंध की पुनर्स्थापना के साथ ही नशाखोरी से मुक्ति का संदर्भ इस कहानी को विशेष बनाती है। इस कहानी में आभिजात्य और जनसाधारण के बीच की गहरी खाई को पाटने का काम किया है लेखक ने। रचनाकार सिद्ध करना चाहता है कि कोई आदमी अपनी संपति से महान नहीं बनता। वह महान बनता है अपने विचार से, संस्कार से, चरित्र से, मानवीय संवेदना से। कहानी की मुख्य स्त्री पात्र अनुपमा आज तक जिस गरीब स्त्री (सावित्री) को चरित्रहीन समझती रही, असक्त होने पर वही उनका जान बचाती है। अनुपमा पेचिश का शिकार हो जाती है, वैसी अवस्था में उनके साथ गप्पे लड़ाने वाली महिलाएँ पूछने तक नहीं आतीं। लेकिन सावित्री न केवल उसकी सेवा करती है, बल्कि अपना आभूषण बेचकर इलाज भी कराती है। सावित्री की सेवा से प्रसन्न अनुपमा सावित्री के पति को राखी बांधती है और बदले में कभी शराब न पीने का वचन लेती है। शर्मा जी अपनी पत्नी के इस हृदय परिवर्तन से अभीभूत हो उठते हैं।             

समाज में यह कहावत प्रसिद्ध है कि दोस्ती, दुश्मनी और विवाह हमेशा अपने बराबर वाले में किया जाए। यही कारण है कि ‘मृणालिनी’ कहानी की नायिका मृणालिनी आनंद को छोड़कर हर्षवर्धन से विवाह करती है, क्योंकि आनंद गरीब का बेटा है और हर्षवर्धन अमीर का। यह अलग सवाल है कि आनंद उसे सच्चा प्रेम करता था, जबकि हर्षवर्धन की नजर उनकी संपत्ति पर थी। इत्तफाक से आनंद कड़ी मेहनत करके प्रसिद्ध डॉक्टर बन जाता है और वह अमेरिका से आता है हर्षवर्धन के ब्रेन ट्यूमर का आपरेशन करने। उनका नाम सुनते ही एक क्षण के लिए मृणालिनी चौंक जाती है कि एक फटेहाल लड़का इतना बड़ा डॉक्टर कैसे बन गया! कहानी में फ्लैश बैक शैली का प्रयोग करते हुए लेखक ने दोनों के बीच के प्रेम और अलगाव को स्पष्ट कर दिया है। कहानी सुखांतक है, क्योंकि ऑपरेशन के बाद हर्षवर्धन ठीक हो जाता है। और मृणिलिनी को अपराधबोध होता है। आखिरकार मृणालिनी आनंद का हाथ रश्मि को सौंप कर प्रायश्चित करती है और अपने अपूर्व त्याग का परिचय देती है।            

‘तस्लीमा बुआ’ कहानी की शुरुआत वहाँ से होती है, जब तस्लीमा को पुलिस वाले पकड़कर थाने ले जाते हैं और इधर पुलिस वाले के खिलाफ गाँव भर के लोग आक्रोशित हैं। वह थाने को जला देने पर उतारू हैं। यह कहानी मुख्य रूप से हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव की कहानी है। तस्लीमा एक शहीद की पत्नी है, जो देश की रक्षा में अपना बलिदान दिया। मृत्यु के पश्चात उन्हें राष्ट्रपति द्वारा परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। अभाग्य से उसी तस्लीमा के गर्भ से उत्पन्न अलाउद्दीन मुश्किल आतंकवादियों से जुड़कर जेहादी हो गया। तस्लीमा सबके सामने स्पष्ट कर देती है कि अलाउद्दीन उसका कोई नहीं है। इस कथन पर वह थाने से छूट तो जाती है, लेकिन भीतर ही भीतर मर जाती है वह। आज तक जिसे पूरा गाँव क्या हिन्दू, क्या मुसलमान ‘बुआ’ कहकर सम्मान देता आया है, उसी का बेटा जिहादी निकलेगा, उसने सपने में भी नहीं सोचा था। कहानी के अंत में तस्लीमी बुआ आत्महत्या करके पाठकों की संवेदना को झकझोर देती है। तस्लीमा अपने सुसाइड नोट में लिखती है कि ‘उसकी अंतिम इच्छा है कि वीरपुर में शांति और सुकून रहे। हिन्दू-मुस्लिम एकता अक्षुण्ण बनी रहे। आज जब हिन्दू-मुस्लिम के बीच वैमनस्य का भाव बढ़ रहा है। जगह-जगह साम्प्रदायिक दंगे हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में यह कहानी अत्यंत प्रासंगिक प्रतीत होती है।               ‘मुक्तिदाता’ कहानी में ‘नारी उत्थान केन्द्र’ के नाम पर वेश्याओं का उन्मुक्त भोग करने वाले सत्ताधारी पार्टी के सांसद नीलाम्बर के चारित्रिक सत्य का पर्दाफाश किया गया है। नीलिमा और जरीना नाम की वेश्या को लग रहा था कि वह इस संस्था से जुड़कर समाज की मुख्यधारा में लौट जाएगी। उनका विवाह किसी सहृदय और उदार युवक से हो जाएगा। दरअसल वह तीन तलाक का शिकार हो चुकी थी, इसीलिए वह अपने लिए किसी हिन्दू युवक का वरण करना चाहती है। जब वह दोनों सांसद महोदय के कमरे में अपने मनोभाव को प्रकट करने जाती हैं, तो वहाँ का नजारा देख कर सन्न रह जाती है। कुछ देर पहले ‘वेश्या उद्धार’ के नाम पर जोरदार भाषण देने वाला यह आदमी स्वयं किसी स्त्री के साथ अपनी रातें रंगीन करने में तत्पर हैं। अपने मुक्तिदाता के चरित्र से आहत ये वेश्याएँ अपने काम पर लौट जाती हैं। इस कहानी के माध्यम से लेखक स्पष्ट करता है कि अक्सर ‘नारी उत्थान केन्द्र’ जैसी संस्थाएँ केवल पुरुषों के उन्मुक्त भोग का केन्द्र बनकर रह जाती हैं।          

कुशल कथा-शिल्पी रामबाबू नीरव की सभी कहानियों के विषय बिलकुल भिन्न -भिन्न हैं। कहानियों का कथ्य स्पष्ट, दमदार और प्रासंगिक हैं। शिल्प- संरचना अनूठी है। और सबसे प्रभावशाली है उनकी भाषा। हरेक कथा और पात्र को गढ़ती, सजाती- संवारती, अभिव्यक्त करती परिपक्व, ताजी भाषा…. इस भाषा को पढ़ना….बार-बार उस परिवेश के तह में प्रवेश करना है, जो अपने लिए स्वयं ‘स्पेस’ बना लेती है। ये कहानियाँ जितनी जातीय और वर्गीय समाज के यथार्थ को उद्घाटित करती हैं, उतनी ही मनुष्य के भीतर के संसार को उकेरती भी है। ‘औरत न होने का दर्द’ के आलोक में कही गई सभी कहानियाँ संवेदनात्मक धरातल पर आपस में सगुंफित हैं, जो संग्रह के शीर्षक को सार्थक बना देती है।

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डाॅ. उमेश कुमार शर्मा  

सहायक प्राध्यापक,     

हिन्दी विभाग,

श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय,

सीतामढ़ी, बिहार ।

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