गुनेसर को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि गोपी पर कुुुुत्ते का विष चढ़ चुका है। ‘रेबीज’ उसके खून में परिपक्व हो चुका है, इसीलिए वह कुत्ते की तरह भौंक रहा है और लोगों को काटने दौड़ता है। विश्वास भी कैसेे हो, उसने तो दो साल पहले कुुुुत्तेके काटने के अगले दिन से ही उसकी नंगी पीठ पर पितरिया थाली साट-साट कर विष झाड़ दिया था। जब उसने बड़े-बड़े विषधर के काटे हुए को माथे पर से विष उतार दिया है तो ये कौन- सी बड़ी बात है। जिसके देह पर साक्षात भगवती, गहील, कारू खिरहर, कमला माय, भुईयाँ भवानी और सोखा प्रकट होते हैं, वह तो कुुुछ भी कर सकता है! उनका मानना था कि गोपी के देह पर जरूर कोई देवी- देवता आविष्ट होना शुरू किया है। उसे याद है कि जब पहली बार उसके उपर कारू खिरहर आविष्ट हुुुए थे। कैैसे पूरे देेह में सनसनी फैल गई थी। शरीर पत्ते की भांति काँँप रहा था। पिताजी तभी ओझौती से संन्यास ले लिये। अब गह्वर लीपने से लेकर इलाके भर के लोगों की पीड़ा हरने का भार उसी पर आ चुुका था। तब वह भी करीब सोलह साल का था।
जब साँँप काटे हुुए रामेसर की भैंस को उसने झाड़-फूँक सेे ठीक कर दिया तो लोग यही कहने लगे कि परमात्मा ने इस गाँव की ‘पत’ रख ली। तब से गुनेसर ने ओझौती के खानदानी पेशे को अपना लिया। लोग ‘भगत’ कहकर संबोधित करनेे लगे। जिधर निकलते लोग हाथ जोड़े खड़े रहते। किसी आदमी को साँँप काटे या पशुु को, किसी को कुत्ता काटेे या बिल्ली, भैैंस गाभ (गर्भ) न रखता हो या गाय। बकरी नहीं दूध देेती हो या गाय, लोग भागे हुए गह्वर में आकर ‘अरजी’ लगाते। गुनेसर सबका रखवाला था। वहाँ देर थी, पर अंधेर नहीं…….
जब से गुुुुनेसर नेे भगवती के गह्वर के सामने कारू खिरहर को स्थापित किया, तब से इलाके भर के लोग वहाँ उमड़ पड़े। भैंस या गाय के बियाने पर दूध शुद्ध होते ही सुबह और शाम का दूूध गारकर भगत जी को पहुँचाने लगे। प्रतिदिन बड़ी हंडी मेंं खीर बननेे लगी।असली दूध से। कारू की कृृपा से सभी देवता मन भर कर खीर का भोग लगाने लगे। कुछ ही दिनोंं में गुनेसर ने ‘भगैत मंडली’ की स्थापना की, जिसमें सात-आठ यादव जी विधिवत् नियुक्त हुए। फिर तो दानी पंंजियार की स्वर लहरियों के साथ ढोलक, झाल, करताल, मृृदंग और खंजरी की ध्वनि से पूरा वातावरण भक्तिमय हो गया। धीरे-धीरेे कारू खिरहर ने वहाँ केे सभी देवी-देवताओं पर अतिक्रमण कर लिया। अब लोग मन्नत पूरी होने पर दूूूध के साथ गांजा भी चढ़ानेे लगे। गुनेसर पर जब भगैत के उच्च स्वरों के साथ कारू खिरहर आविष्ट होते तो उनका पूरा देेह ऐंठने-जूठने लगता। फिर जोर की आवाज में पुकारते-“चलो रे कारणी, मोगल सदा…….जाओ तेेरा भैैंस अब गाभ रखेगा। पहला दूध और दस चिलम गांजा बाबा को चढ़ा जाना। भूलना नहीं।” फिर से गांजे का कश खींंचकर चिल्लाते- “चलो रे सुुुकनी देेवी, इस बार तुम्हारा गर्व ठहरेगा। बेटा होगा। उसका मुंडन गह्वर में करवाना। इस अरहुल फूल को आंचल में बांध लो।”
इसी तरह गांंजे में सोंट मार-मार कर गुुुनेसर पूरे इलाके के गम को धुएँ में उड़ाते गये। वे शिव की भांति विषपान कर जगत् को अमृत परोसते रहेे।
गुनेसर भगत के दरवार से कभी कोई खाली हाथ नहीं लौटता। वहाँ देर थी, पर अंधेर नहीं! अगर वहाँ से कोई खाली हाथ लौट आया, तो वे थे मेेरे पिताजी। उस रात माँ को सोये हुए में विषधर ने काट लिया था। रात के ग्यारह बज रहे थेे। वह चौंंक कर जगी। पैैर के अंगूठे से छल-छल खून बह रहा था। दादी जगते ही बोली- “पता नहीं कि चूूहों से तेरी क्या दुुुुश्मनी है! यह तीसरी बार है न? कहती हूँ कि घर में ‘मुुुुसकल’ लगाया करो, पर मेेेेरी सुुनता कौन है!”
पिताजी जब तक जगे, माँ का सिर चकराने लगा था।
भादो मास की अंधेरी रात, जब मेघ ने भी आज ही बरसने का कसम खा लिया था! घर में न छाता, न टार्च। लेेेकिन उसे लेकर गह्वर जाना था। देवी की शरण में…… गाँव के उस छोर पर…..। गुनेसर भगत के दरबार में। देर करना ठीक नहीं था। उधर दादी अड़ी थी कि उसे चूहे ने काटा है। घर में बहुत चूहा हो गया है। इसको ऐसे ही कुछ भी हो तो माथा चकराने लगता है। माँँ को नीम का पत्ता चखाया गया। मीठा लग रहा था। पिताजी सन्न रह गए! वे माँ को खींचते हुए गह्वर की ओर दौड़ पड़े। माँ कुछ ही कदम चली थी कि उसे कुुुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। अंधेरे में ही धरती चाक की तरह घूूम रही थी। पेड़-पौधे तेजी से चल रहे थे। पिताजी ने उसे कंधे पर उठाया। ऊपर से पानी का बरसना तेज हो गया। नीचे छपाछप पानी। पिताजी गिरे! उठे! फिर गिरे! उठे और चलते रहे। बाढ़ का पानी। टूटी हुई सड़क, लेकिन रुकना नहींं था। चलना था। वेे चलतेे रहे। गह्वर सामनेे था। माँँ की आवाज घरघराने लगी। विष ने कंठ को घेर लिया था।
गुनेसर भगत उठे और सीधे झाड़़ने लगे। झाड़़ते रहे। विष माथे तक पहुँच गया था। वे माथे पर सेे ही झाड़ रहे थे। वे बार-बार विष को नीचे उतारते, लेकिन विष फिर माथे पर…. फिर माथे से झाड़ना शुरू।
पिताजी की चिंता बढ़ती जा रही थी। आँखों के सामने अंधेरा छाता जा रहा था। चार- चार बच्चेे……साल भर का दुधमुँँहा बच्चा……मातृहीन……आँँखें छलछला गयीं!
वे कल्पना से बाहर आये। गुुुनेसर अब भी झाड़ रहा था । सिर से पैर तक, पैर से सिर, पर माँ की हालत बिगड़ती जा रही थी। अब मुुँह से लार निकलने लगा था। एकदम गाढ़ा लार! फिर सफेद फेन…..!
माँ धुस्स सेे गिरी जमीन पर। गुनेसर की भगतगिरी निष्काम हो गयी……देेेेवी की शक्ति क्षीण हो गयी। भक्तिन ने मुँँह पर टार्च जलाया। चेहरा सियाह! माँ अब इस दुुनिया में नहीं थी! आंगन में लाश आई। साथ में पूरा गाँव ऊमर पड़ा।दादी पहले से छाती पीट रही थी, क्योंकि उसनेे घर से बाहर निकलते हुए विषधर को देख लिया था। अब किसी को नींद कहाँ से आती! माँ अपने पीछे चार अनाथ बच्चेे को छोड़ गयी थी।
उधर माँ की लाश जल रही थी और इधर उसके धुएँ के साथ ही पूूरे गाँव में यह बात फैल गई कि एकाढ़ वाली (माँ) को उसकी सास ने खाया है। दादी पर पहले से जो डायन होने के आरोप लगे थे, उस पर आज पूरे गाँव की महिलाओं ने मोहर लगा दिया। पिताजी विक्षिप्त रहने लगे। फिर कुुुछ दिनों बाद वे बिना किसी को कुछ कहे घर छोड़कर निकल गए।
लेकिन माँ तो माँँ थी, वह कैसे अपने अबोध बच्चे को छोड़ सकती थी! तीन महीने बाद वह लौट आई! चाची की देह पर। चाची बकने लगी – “कहाँ है मेरा बड़का बेटा? मुझे उसके हाथ से पानी पिला दो। बहुत प्यास लगी है। कहाँ है मेरा छोटा लाल? लाओ उसे दूूध पिलाना है। मेरे बाल-बच्चे को अगर किसी नेे छुआ तो , जिन्दा न छोड़ूँगी। अपने साथ ले जाउँगी।”
पडो़स की महिलाओं ने आकर चाची को घेर लिया- एकाढ़ वाली आयी हैै अपने बाल-बच्चे को देेेखने। छोटकी के देह पर। सबकी आँखें चमक रही थीं- आज तो यह राज खुलकर ही रहेेेेगा कि उसे किसने खाया है? विषधर को किसने भेजा था? दादी से आँँखें बचाकर महिलाओं में कानाफूसी होने लगी- “सैखौकी का अपने साय- बेटे को खाने से मन नहीं भरा…..बाल- बच्चे को टूगर (अनाथ) बना दी!”
गुनेसर चाची का बाल पकड़कर झिंझोड़ते हुुुए पूूछ रहे थे- “बोल तुम्हें किसनेे खाया? विषधर को किसने भेजा था? इसके देह पर क्यों आई है?”
“हम इसे ले जाने आए हैं? ई बेेटखौकी हमारे बाल-बच्चे को बासी भात खिलााती है।” माँ बोली।
“ले ही जाना है तो हमें ले चलो।अब हम जीना नहीं चाहते…. बड़की।” दादी फूट पड़ी- “मैंने तुम्हें खाया है न, मुुझे ले चलो!”
महिलाओं की छाती ठंडी हो रही थी- इस डायन को जरूर ले जाओ, गाँव को चैन मिलेगा। पता नहीं अब इसकी नज़र किस पर टिकी है?
माँ, चाची को ले जाने पर अड़ी थी। वह उसे नहीं छोड़ रही थी। पहले लोगों को लगा कि वह बेेटे के हाथ से पानी पीकर चली जाएगी। अपने बच्चों को देखने आयी है, पर यह गलत था। वह तो सच में चाची को लेे जानेे आयी थी। वह उसके पूरे शरीर को मरोड़ रही थी। झकझोर रही थी। अब ले जाकर ही छोडे़गी! महिलाओं में फिर कानाफूसी शुरू- “बपखौकी मौगी, क्योंं उसके बाल- बच्चे को बासी भात खिलाती है? अब भुगते!”
-“दूसरे के बाल-बच्चेे को कौन देखता है कनिया!”
-“भगवान् किसी बच्चेे से उसकी माँ न छीने!”
-ई सब तो बुढ़िया की करतूूूत है न? अपने साय-बेटे को खाकर संंतोष न हुआ!”
-“सैखौकी को उठा ले, देवता कहीं हो तो।”
गुनेसर ने बहुत धमकाया, पर माँ टस से मस न हुई। वह जान लेकर ही दम लेने वाली थी।
गुनेसर रौद्र रूप मेंं आ गये। उसने चाचा से खुरपी लाल करके लाने को कहा। चाचा जी अब तक परेेेशान हो चुकेे थे। वे चूूल्हे से खुरपी लाल कर लेे आए। गुनेसर ने खुुरपी पकड़तेे हुए अंतिम बार कहा -“भागती है कि नहीं? देखती है लाल खुरपी, दाग देंंगे।”
“नहीं छोड़ेंगे, ले जाएंगे।” माँ ने हुंकारी भरी।
गुनेसर ने गर्म खुरपी सेे चाची की पीठ दाग दिया। चाची जोर से चीख उठी।चमड़े के जलने से चारों तरफ़ चिराइंध गंध फैल गयी। माँ अब तक जा चुकी थी।
माँ एक माह बाद फिर हाज़िर। अपनेे बच्चे को देखने और उसे ले जाने। गुनेसर ने फिर दागा।माँ फिर गयी। फिर आयी।
अब तो वह अपने टूगर बच्चों को देखने हर सप्ताह आने लगी। चाची की पीठ पर अब दागने के लिए कोई साबूूूत जगह नहीं बचा था। शरीर दिनों-दिन गलता जा रहा था।
चाचा जी ने आजिज होकर गुनेसर की सलाह पर घर में भगैत का आयोजन किया।
घर में दानी पंजियार की ऊँची आलाप और झाल,मृदंंग,करताल तथा खंजरी की आवाज गूूंजने लगी।महिलाओं को अब भी चाची से ज्यादा दादी की चिंता थी- इस डायन का ईलाज तो आज होकर रहेगा। कमला माय ऐसे ही नहीं छोड़ देगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। चाची को दस बजे रात में नहलाकर, नयी साड़ी पहनाकर आंगन में बैैठा दिया गया। अब गुनेसर पर कमला माय आविष्ट हो गयी। उसका पूूरा शरीर काँपने लगा। मुँह से हुुकरनेे की आवाज निकलने लगी। फिर वह चाची को माथे से हसोतना शुुरू किया और धीरे-धीरे पैर तक आया।चाची अब तक बेहोश हो गई। गुुुनेसर ने चाची पर से माँ का भूूत उतारकर बोतल में बंद किया और उसे ले जाकर घर से दूर मोटे ईमली के पेड़ में काँटी से ठोक दिया। गुनेसर भगत ज्योंं-ज्यों कील पर हथौड़ा मारता गया, कील मेेेरे सीने में धँसता गया-धँसता गया और अंत मेंं मैंं जोर से चींख पड़ा।
अब वह ईमली का पेड़ गाँव भर के लिए भुतहा हो गया।कोई उसके इर्द-गिर्द नहीं जाता। महिलाएँ अब उस दिन के इंतज़ार में थीं,जब गुनेसर मेरी दादी को उसी भुतहा पेड़ में ठोक देेंगे। वह ईमली का पेड़ सबके लिए डरावना था, लेेेकिन मैं सच कहता हूँ कि वह भुतहा पेेड़ ही मुझे सबसे ज्यादा सुकून देता था। जब भी कोई हमेंं मारता तो हम वहीं आकर माँँ से शिकायत करते। माँ सुुन लेेती तो मेरा मन हलका हो जाता।
गोपी ने आज सबेेेेरे जब सोये हुए गुनेसर को बाँँह में काटा तो उसे लगा कि उसपर कोई देवी आविष्ट होकर उसके क्लेस को हर लिया है, लेकिन जब वह कुत्ते की तरह भौंकता हुआ कई लोगों को घायल कर दिया तो उसे महेेेसर यादव का पगला कुत्ता याद हो आया, जिसने दो साल पहले गाँव के अनेक लोगों को काटा था। सबने जाकर सरकारी अस्पताल में रेेबीज की सुई लगवायी, पर वह गोपी का विष झाड़-फूँक से उतार कर निश्चिंत हो गया था।
आखिरकार उसी भुतहा पेड़ में लोगों ने गोपी को बांध दिया। फिर सदर अस्पताल ले जाने के क्रम में वह कुत्तों की भाँति भौंकता हुआ दम तोड़ दिया।
पिछले महीने जब मैं दादी के श्राद्धकर्म मेंं गाँव पहुँचा तो देखा कि भुतहा पेेड़ के पास लोगों की भारी भीड़ लगी है।उसी पेड़ सेे बंधा हुआ गुनेसर कुत्तों की तरह भौंक रहा है। उसे जाल में लपेटकर सदर अस्पताल ले जाने की तैयारी की जा रही है।
गुनेसर भगत को इस हाल में देखकर एक बार फिर मैं सिहर उठा, पर कील सेे ठुकी हुई माँँ आज खुश थी। वह प्रसन्न होकर कह रही थी -“ऐसा पाठ पढ़ा पुत्ता….अपने सिर बिसानी”।
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