“पापा! रात हो गई। अब छत पर नहीं रहना चाहिए….नीचे चलिए।” मेरे चार वर्षीय बेटे ने डरते हुए मुझसे कहा।
-“क्यों, ऐसा क्या हो गया सो…!” मैंने पूछा।
-“रात को न, छत पर ‘स्नोमेन’ आ जाता है। वह बहुत खतरनाक है। वह बच्चों को मारकर खा जाता है और बड़ों को टांग पकड़कर घसीटते हुए ले जाता है। उसका एक भाई भी है। वह भी बहुत खतरनाक है।” बोलते हुए उसकी साँसें तेज हो गयी….। एक अज्ञात भय उसके चेहरे पर उभर आया।
-“लेकिन तुमने कहाँ देखा स्नोमैन…?” मैंने प्रश्न किया।
-“मोबाईल में….!
-“मोबाईल में स्नोमेन! दिखाओ तो मुझे भी…।” मैंने उसे अपना मोबाईल थमा दिया।
फिर अगले ही पल उसने मुझे स्नोमेन दिखा दिया। वह बर्फ का एक पुतला था, जिसके मुँह से डरावना स्वर निकल रहा था। फिर उसने मुझे उसके भाई को भी दिखाया….!
मैं सोचने लगा कि क्या हो रहा है इस पीढ़ी के साथ! हमलोग जब इस उम्र में थे तो दादी, राजा- रानी की कहानियाँ सुनाया करती थीं। राजकुमारी के सौंदर्य और राजकुमारों की वीरता एवं शौर्य की कहानी सुनकर मन प्रफुल्लित हो जाता था। लेकिन वर्तमान पीढ़ी को किस तरह मोबाईल और इंटरनेट की आभासी दुनिया ने अपने तिलिस्म में फँसा लिया है। यह पीढ़ी वास्तविक संसार को ही झूठ समझने लगी है। आभासी दुनिया ही इसे परम सत्य प्रतीत हो रहा है।
और वही पीढ़ी क्यों? वर्तमान में संपूर्ण मानव जाति आभासी तिलस्म में फँस चुकी है। सभा- संगोष्ठी में बैठे हुए सौ लोगों में कम से कम पचास लोग मोबाईल पर आनलाईन रहते हैं। वे या तो मैसेज देख रहे होते हैं अथवा कोई न कोई रील देखने में व्यस्त होते हैं। शेष बचे पचास लोगों में से चालीस लोग हर दस- पन्द्रह मिनट पर एक बार मोबाईल का स्क्रीन लाॅक खोलते हैं और क्रमिक रूप से वाट्सप, फेसबुक, ट्यूटर, टेलीग्राम, इंस्टाग्राम आदि पर जाते हैं। यह अलग सवाल है कि अभी उसे मोबाईल खोलने की कोई जरूरत नहीं थी, फिर भी वे अनजाने में इस आदत से लाचार हो चुके हैं।
मोबाईल और इंटरनेट के फैलाव ने परिवार और समाज में संवादहीनता की स्थिति पैदा कर दी है। लोग अपने- अपने कानों में इयरफोन कोंचे हुए अपनी दुनिया में मस्त रहते हैं। बाहर क्या हो रहा है, उससे एकदम बेपरवाह…। इसी कारण ‘जनरेशन गैप’ जैसी गंभीर की समस्याएँ सामने आ रही हैं। बच्चे अपने दादी- नानी को ही नहीं, बल्कि माँ- बाप को भी ‘आउटडेटेड’ समझने लगे हैं। विद्यार्थी अपने को शिक्षक से अधिक ‘स्मार्ट’ समझते हैं। उसे लगने लगा है कि गूगल पर ही संसार का संपूर्ण ज्ञान भरा पड़ा है।
एक जमाना था। जब लोग ट्रेन में सफर करते थे, तो अपने आसपास बैठे अजनबी यात्री से भी घर- परिवार और देश- दुनिया की बातें करते हुए दिल्ली, मुंबई, कलकता पहुँच जाते थे। लेकिन आज क्या हो रहा है। ट्रेन में बैठने वाले लगलग नब्बे प्रतिशत लोग अपने- अपने मोबाईल पर लगे होते हैं। इसमें हर उम्र के लोग शामिल हैं। कहा जाता है कि ये लोग सोशल साइट्स पर देश- दुनिया को देख रहे हैं। पर मैं पूछता हूँ कि वास्तविक समाज से बेपरवाह, आभासी संसार की चिंता में दुबले होने वाले ये लोग कितने सामाजिक हो सकते हैं…?
शिक्षक होने के नाते मुझे सबसे अधिक चिंता विद्यार्थियों की होती है। जिन्हें अपना कैरियर बनाना है। जिन्हें आने वाले समय में इस देश को संभालना है। जिनके कंधों पर हमारे सपनों का भारत है। आखिरकार वे मोबाईल पर क्या देख रहे हैं! तहकीकात करें तो वह या तो रील देखने में व्यस्त हैं। या अपने प्रियजनों से संवाद में निमग्न हैं। नहीं तो वे अपने पुरूष अथवा महिला मित्र से चैट कर रहे हैं। उसे यह पता ही नहीं चल पाता कि चौबीस में से उसके आठ- दस घंटे ऐसे ही निकल जाते अंहैं। किसी ने ठीक ही कहा है कि ‘जिसके मोबाईल में नेट है, वह कहीं न कहीं सेट है।’ आभासी संसार ने प्रेम को इतना सस्ता बना दिया है कि लोगों को प्रेम होने में दो- चार दिन भी नहीं लगता! हाय, हैलो, गुड मार्निंग और गुड नाईट के बाद ‘लव यू’ बोलने में अब उन्हें कोई संकोच नहीं होता। आखिरकार यह कैसा प्रेम है जो बिना परिचय के ही, बिना एक- दूसरे को जाने- समझे ही हो रहा है। आखिरकार इस प्रेम की क्या परिणति होती है… भटकाव.. अवसाद….चिर वियोग या फिर आत्महत्या…!
विद्यार्थीगण अक्सर मुझसे प्रश्न करते हैं कि ‘मुझे पाठ याद ही नहीं होता! करें तो करें क्या?’ जबकि इसका कारण स्पष्ट है कि वह किसी पाठ को सही अर्थों में याद करना ही नहीं चाहता। उनमें एकाग्रता की बेहद कमी है। वह जहाँ है, सच में वहाँ है ही नहीं। उनके तन और मन का अंत:सूत्र भंग हो गया है। और उसे पता भी नहीं है कि उसकी एकाग्रता का सबसे बड़ा दुश्मन उसके पास है, उसके हाथ में है। वह अपने स्मार्टफोन से अलग रहकर जी ही नहीं सकता। उनकी साँसें इसलिए चल रही हैं कि उसके हाथ में स्मार्टफोन है। स्मार्टफोन बनाने वालों ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि जीवन को सहज बनाने वाला यह उत्पाद एक दिन बौद्धिक विनाश का सबसे बड़ा कारण बन जाएगा। क्या कभी ऐसा होता है कि आपके पास एक घंटे का खाली समय है और आप किसी गंभीर विषय पर चिंतन करते हैं। या फिर अपने मस्तिष्क को स्पेस देते हैं कि वह कुछ नया सोच सके। अक्सर ऐसे समय को आप अपने मोबाईल पर बिताना पसंद करेंगे। बकवास की चीजों में। फिर कैसै संभव हो सकेगा नया चिंतन, मौलिक अन्वेषण! जरा सोचिए कि न्यूटन के हाथ में एक स्मार्टफोन होता तो क्या वह कभी पेड़ से सेब गिरने के कारणों पर विचार कर पाता। कदापि नहीं। हम वर्तमान पीढ़ी से यही निवेदन करना चाहेंगे कि नेट- इंटरनेट की आभासी दुनिया से परे वास्तविक दुनिया भी है। इस पर जरूर विचार करें। जो आभासी दुनिया हमारे विकास का कारण हो सकता था, उसने हमें अस्तित्वहीन बना दिया है। **********************************
लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में अध्यक्ष हैं।
वास्तविक सच्चाई 🙏
Hart Taichung sir …bilkul sahi kaha sir apni 😞😞🤗🙏🙏