आईने में समय : अपने समय का आईना

 ‘आईने में समय’ : अपने समय का आईना
             हिन्दी के युवा कथाकार बलराम कुमार रचित कहानी- संग्रह ‘आईने में समय’ की अधिकांश कहानियाँ वर्तमान समय का आईना है। इस आईने में जितना साफ हमारा समय दिखता है, उससे कहीं अधिक साफ कथाकार का संवेदनात्मक व्यक्तित्व झलकता है। इस संग्रह की कहानियाँ रचनाकार की जीवनानुभूतियों की कलात्मक तथा मार्मिक अभिव्यक्ति है। इन कहानियों में कहीं रचनाकार का अस्तित्वबोध है, तो कहीं अपनी अस्मिता की खोज में तत्पर पात्रों की बेचैनी। कुछ कहानियाँ लेखक के विक्षुब्ध मनोभाव की अभिव्यक्ति है, तो कुछ अंत:सलिला की भाँति मानव हृदय में सतत प्रवहमान प्रेम का सहज उच्छलन।
             अपनी कहानियों के बहाने बलराम जी ने मौजूदा समय की गहन पड़ताल की है। टूटते -बिखरते मानवीय संबंध, क्षरित मानवीय मूल्य और नैतिकता के स्खलन से आहत रचनाकार की टीस मानो यहाँ शब्दबद्ध हो गई है। ये कहानियाँ ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’ जैसी परंपरित साहित्यिक प्रतिमानों को ध्वस्त करती हुई, स्वानुभूत पीड़ा की जीवंत अभिव्यक्ति है। 
            ‘आईने में समय’ नामक संग्रह में बलराम कुमार की कुल पन्द्रह कहानियाँ- ‘अनाथ की जिंदगी’, ‘आईने में समय’, ‘बाढ़ की कहर’, ‘अपनों की पहचान’, ‘कलक्टर बाबू’, ‘बेरोजगारी की मार’, ‘विवाह की जल्दी’, ‘कर्तव्य’, ‘दो मित्र’, ‘काॅलिस्टोर’, ‘जदुवंशी’, ‘राजा नल और दमयंती की कथा’, ‘समर्पण’, ‘प्रेम की तुम्हारी अभिव्यक्ति’, और ‘आत्महत्या’ संगृहीत हैं। संग्रह की प्रथम कहानी ‘अनाथ की जिंदगी’ वस्तुत: वैसे निम्नवर्गीय परिवार की त्रासद कथा है, जिसमें पुरुष अपनी पत्नी और बच्चे को छोड़कर परदेश कमाने जाता है, परंतु वह किसी गैर स्त्री के प्रेमजाल में फँस जाता है और भूल ही जाता है कि उसका भी कोई परिवार है! बच्चे हैं! कथानायक रोहन तब घर लौटता है, जब गरीबी, भुखमरी और बदहाली उनकी पत्नी रमनिया को लील जाती है। अब उसके शव पर बिलखने से क्या मिल सकता है! उजरा हुआ परिवार और अनाथ बच्चे ही अब उसकी नियति है! इस कहानी पर भोजपुरी के शेक्सपियर कहे जाने वाले लोक नाटककार भिखारी ठाकुर की कृति ‘बिदेसिया’ की छाया परिलक्षित होती है।
              आरंभ से ही भारतीय समाज अनेक जातियों तथा वर्गों में विभाजित है। यद्यपि कभी इस विभाजन के केन्द्र में श्रम -विभाजन था, परंतु कालांतर में यह सामाजिक स्तरीकरण का आधार बन गया। बताया जाता है कि ‘ब्राह्मण’ ब्रह्मा जी के मुख से उत्पन्न हुए, इस कारण वे पवित्र और पूज्य हैं, जबकि ‘शूद्र’ ब्रह्मा के पैर से उत्पन्न हुआ, इस कारण वह नीच,अछूत और बहिष्कृत है। इस समाज में सदियों से मुखस्य संस्कृति और पदस्य संस्कृति का संघर्ष जारी है। अंबेडकर जी ने अछूतोद्धार के लिए ‘समता, स्वतंत्रता और बंधुता’ का नारा दिया था। लेकिन अंबेडकर का यह मंत्र तब तक कारगर नहीं हो सकता, जब तक दलितों में शिक्षा का प्रचार- प्रसार नहीं होगा। यद्यपि आज दलितों में शिक्षा के प्रति जागरूकता आई है, लेकिन आजादी के छिहत्तर सालों बाद भी जगह-जगह उन्हें विषमता की पीड़ा झेलनी पड़ती है। संग्रह की प्रतिनिधि कहानी ‘आईने में समय’ विषमता की इसी त्रासदी का उद्घाटन करती है। जब दलित वर्ग के बच्चे पढ़ने के लिए स्कूल जाते हैं, तो शिक्षकों द्वारा उन्हें पढ़ाए जाने बजाय, उनसे स्कूल की सफाई करवायी जाती है। इस तरह दलित बालक कीरथ, महेसर, रूपना और ढुनमा के प्रति शिक्षकों का द्वेषभाव आजाद भारत के लिए कितना शर्मनाक है। विडंबना है कि आज भी हमारे देश के शिक्षण संस्थान द्रोणवादी मानसिकता से पूर्णत: मुक्त न हो सके हैं। यद्यपि इस कहानी पर ओमप्रकाश बाल्मीकि की आत्मकथा ‘अछूत’ की छाया है, फिर भी यह कहानी सामाजिक समता की मांग करती है।
            ‘बाढ़ का कहर’ कहानी में बाढ़ की विभीषिका से उबरने का संघर्ष और जन साधारण के भीतर का अदम्य साहस और जिजीविषा रेखांकित हुआ है। इस कहानी में रचनाकार या तो बाढ़ का चश्मदीद गवाह है या भोक्ता। तभी यह कहानी इतनी मार्मिक और जीवंत बन पड़ी है। 
              वर्तमान समय में अतिशय यांत्रिकता के कारण मनुष्य भीड़ में भी अकेलेपन को जीता है। मशीनीकरण ने मानवीय संवेदना को एकदम भोथरा बना दिया है। लोग देश-विदेश में बैठे अपने ‘फेसबुकिया फ्रेंड’ के साथ संवाद करते हुए पूरी रात बिता देते हैं, परंतु बगल के कमरे में कराहते हुए अपने परिजन की सुधि लेना आवश्यक नहीं समझते। ‘अपनों की पहचान’ कहानी में लेखक ने अजनबीपन और एकाकीपन की समस्या से ग्रसित मनुष्य की पीड़ा को मार्मिक तरीके से व्यक्त किया है। कहानी में दिखाया गया है कि किस तरह मनुष्य अपनों की भीड़ में भी अकेलेपन के साथ जीने को अभिशप्त है। 
             ‘कलक्टर बाबू’ नामक कहानी में बलराम जी ने अपने घर परिवार से सर्वथा उपेक्षित एक बालक रोहन के संघर्ष और सफलता का वृत्तांत प्रस्तुत किया है। रोहन पर उसके चाचा द्वारा कई तरह के लांछन लगाये जाते हैं, जिसमें प्रमुख है कि वह अपने कॉलेज की एक लड़की के प्रेमजाल में फंसा है। इसी कारण उसे पढ़ने- लिखने से मना किया जाता है, परन्तु अपनी बड़ी बहन के सहयोग और प्रोत्साहन से वह पुन: पढ़ना- लिखना शुरू करता है और अंतत: कलेक्टर बनकर गाँव लौटता है। रोहन की इस सफलता को देखकर लोग अचंभित रह जाते हैं। चाचा के मुँह पर कालिख पुत जाती है, परंतु बहन ऐसे भाई को पाकर बेहद गौरवान्वित महसूस करती है। कहानी के बहाने लेखक ने सिद्ध करना चाहा है कि मनुष्य के भीतर अपार संभावनाएँ हैं। अगर कोई अपनी संभावना को परख ले तो वह जीवन के चरम लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है।
              ‘बेरोजगारी की मार’ कहानी में लेखक ने कथानक के माध्यम से वर्तमान समय में बेरोजगारी के भयानक संकट को रेखांकित किया है। कहानी में कथानायक रोजी- रोज़गार के लिए भटकता है, वह परदेश भी जाता है, पर कहीं जम नहीं पाता। आखिरकार माँ की मृत्यु के पश्चात वह गाँव लौटकर आता है और खेती -पथारी करके अपनी पत्नी के साथ सुखपूर्वक जीवन जीने लगता है। इस कहानी बलराम जी ने युवाओं की पलायनवादी प्रवृति का विरोध किया है तथा युवाओं को यह संदेश दिया है कि बिहार में भी रोज़गार की अनंत संभावनाएँ हैं।
              भारतीय समाज आज भी कई तरह की समस्याओं से ग्रसित है। यह कहना असंगत न होगा कि अशिक्षा ही अधिकांश समस्याओं की जड़ है। चाहे गरीबी हो या बेरोजगारी, बाल- विवाह हो या दहेज- प्रथा।  ‘विवाह की जल्दी’ नामक कहानी में बाल- विवाह की त्रासद परिणतियों की ओर रचनाकार ने इशारा किया है। बाल- विवाह के कारण ही प्रसूता तथा नवजात शिशु की मृत्युदर में कमी नहीं आ रही है। साथ ही जनसंख्या वृद्धि के लिए भी बाल- विवाह कम जिम्मेदार नहीं है। सरकार ने इसे रोकने के लिए चाहे लाख कानून बना दिया हो, विवाह की उम्र तय कर दिया हो, परंतु सामाजिक जागृति के बिना यह सब व्यर्थ है। उपर्युक्त कहानी में बाल- विवाह के परिणाम को दिखाकर इस कुप्रथा से मुक्त होने का संदेश दिया गया है।
             ‘कर्तव्य’ इस संग्रह की छोटी-सी,परंतु मार्मिक कहानी है। यह कहानी आज के विकट दौर में मानव के दायित्वबोध पर प्रकाश डालती है। मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है, इसलिए उसे केवल अधिकार नहीं कर्तव्य का भी बोध होना लाजिमी है। कहानी में कथानायक बबलू अपने परिवार की विपन्न स्थिति को देखकर परदेश कमाने चला जाता है और इस बीच उसकी पढ़ाई छूट जाती है। लेकिन वह अपने भूखे माता – पिता के लिए अपने भविष्य को कुर्बान कर मानवीय कर्तव्य उदाहरण पेश करता है। 
              भूमंडलीकरण और बाजारवाद की अंधी दौर में रिश्ते- नाते पीछे छूट रहे हैं। अब मानवीय संबंधों के केन्द्र में भी नफे और नुकसान का भाव व्याप्त हो गया है। ऐसी स्थिति में बलराम कुमार की कहानी ‘दो मित्र’ बेहद प्रासंगिक है। कहानी में दो मित्र जो परिस्थितिवश एक दूसरे से बिछड़ जाते हैं और मित्र के अभाव में दोनों अकेलेपन के शिकार होने लगते हैं। ऐसी स्थिति में वे पुन: बचपन के मित्र को खोजते हैं और एक दूसरे से मिलकर जीवन के कठिनाईयों से लड़ते हुए जीवन पथ पर आगे बढ़ते हैं। सोशल साइट्स के इस जमाने में भी कोई अपने पुराने मित्र को याद करता है। उसे खोजता है। यह अत्यंत सुखकर है।
             ‘काॅलिस्टोर’ मूल रूप से वृद्ध -विमर्श की कहानी है, जिसमें एक माँ जो परिवार की सुख-समृद्धि के लिए संपूर्ण जीवन खपा देती है, जीवन की साँझ में वह उसी घर में महत्त्वहीन हो जाती है। बात -बात पर उसे बहू से दुत्कार मिलता है और वह उसी घर में अपमानित जीवन जीने को मजबूर है।
यह कहानी कुंद पड़ी हुई मानवीय संवेदना को कुरेदती है।
             ‘जदुवंशी’ जातीय अस्मिता की कहानी है, जिसमें लेखक ने यादवों की वंश-परंपरा का उल्लेख करते हुए गड़ेरी जाति (भेड़पालक) को यदुवंशी सिद्ध करने की चेष्टा की है। वस्तुत: यह कहानी, कहानी विधा का अतिक्रमण कर निबंध के अधिक समीप पहुँच जाती है। ‘राजा नल और दमयंती की कथा’ वस्तुत: नल और दमयंती के पुरा आख्यान पर आधारित है, जिसे रचनाकार ने कहानी के अभिनव साँचे में ढालने की चेष्टा की है। ‘समर्पण’ नामक कहानी में प्रेम के मूल स्वरूप पर लेखक ने अपना मंतव्य प्रस्तुत किया है।
              ‘आत्महत्या’ इस संग्रह की अंतिम कहानी है, जिसमें रचनाकार ने कथानायक रघु के संघर्ष को दिखलाता है। रघु यद्यपि जीवनपर्यंत विपन्नता को झेलता है, परंतु वह अपने बेटे- बेटियों के सारी जरूरतों को पूरा करता है । सबको पढ़ा- लिखाकर सभ्य मनुष्य बनाने की कोशिश करता है। यह अलग सवाल है कि वह इसके लिए निजी जीवन को कुर्बान कर देता है। जीवन की चक्की में पिसते हुए असमय उसकी मृत्यु हो जाती है, परंतु वह अपने लक्ष्य को सिद्ध कर लेता है।
             बहरहाल, बलराम कुमार की यह रचना ‘आईने में समय’ सही मायने में ‘अपने समय का आईना’ है। इन कहानियों में विषयगत विविधता है। वाबजूद इसके कथ्य की स्पष्टता तथा भाषा और शैली की सहजता है। संग्रह की सभी कहानियाँ पठनीय हैं। बलराम जी निरंतर सृजनरत रहे। आने वाले समय में उनकी अखंड ख्याति फैले। यही मेरी शुभकामना है।

    – डाॅ. उमेश कुमार शर्मा
सहायक प्राध्यापक सह अध्यक्ष, 
           हिन्दी विभाग,
श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय,
         सीतामढ़ी, बिहार।

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