असाध्य वीणा : गहन आत्मचिंतन की कविता
– डाॅ. उमेश कुमार शर्मा
प्रयोगवाद के प्रवर्तक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय एक प्रतिभासंपन्न कवि हैं। उनकी कविताएँ अंग्रेजी कवि विलियम वर्ड्सवर्थ, टी. एस. इलियट और आई. ए. रिचर्ड्स की भाँति गहन आत्मचिंतन से प्रस्फुटित होती हैं। विलियम वर्ड्सवर्थ के शब्दों में कहें तो अज्ञेय की कविताएँ ‘प्रबल मनोवेगों का सहज उच्छलन है।’ समय से कदमताल करती हुई उनकी कविताएँ पाठक को ‘स्पोण्टेनियस’ के चरम तक ले जाती हैं। ‘चिन्ता’, ‘इत्यलम’, ‘भग्नदूत’, ‘हरी घास पर क्षण भर’, ‘अरी ओ करुणा प्रभामय’, ‘बाबरा अहेरी’, ‘इन्द्रधनुष रौंदे हुए’, ‘कितनी नावों में कितनी बार’, ‘आंगन के पार द्वार’ आदि काव्य कृतियाँ ऐसी ही हैं। ‘आंगन के पार द्वार’ में संकलित कविता ‘असाध्य वीणा’ कवि की संपूर्ण रचनात्मकता का उत्कर्ष है। यह कविता लगभग अज्ञेय जी के अंतिम समय की कविता है, जब वे रचनात्मकता के शिखर पर पहुँच चुके थे। सही मायने में अगर अज्ञेय ने एकमात्र कविता ‘असाध्य वीणा’ ही लिखा होता तो भी वे इतने ही चर्चित होते।
‘असाध्य वीणा’ अज्ञेय की संपूर्ण सृजनात्मक प्रतिभा का चरम है। यद्यपि यह कविता एक चीनी लोककथा पर आधारित है, परंतु इलियट की भाषा में कवि ने ‘ट्रेडिशन’ से प्राप्त सामग्री को अपने ‘इंडीविजुअल टैलेंट’ से चमत्कारिक बना दिया है। या यूँ कहें कि कवि ने परंपरा से प्राप्त चीनी लोककथा का अपनी वैयक्तिक प्रज्ञा से भारतीयकरण कर दिया है। चीनी लोककथा के अनुसार – ‘लुंगामिन की खाल में एक विशालकाय कीरी वृक्ष था, जिससे इस वीणा का निर्माण किया गया था। अनेक कलावंत वादक इसे बजाने का प्रयत्न कर हार गये, परंतु वीणा नहीं बजा। इसी कारण इस वीणा का नाम ‘असाध्य वीणा’ पड़ गया। अंत में बीनकरों के राजकुमार ‘पीवो’ ही उस वीणा को साध सका। इस वीणा से उसने ऐसी तान छेड़ी कि उससे तरह- तरह की स्वर लहरियाँ प्रस्फुटित होने लगीं। कभी उसमें से प्रेम गीत निकलते, तो कभी युद्ध का भयानक राग। वीणा को साधते समय राजकुमार पीवो इतना बेसुध हो गया कि उसे स्वयं के होने का बोध ही न रहा। वह यह भी न समझ पाया कि वाद्य-यंत्र पीवो है, या पीवो वाद्य-यंत्र है। कला -साधना में कलाकार का कला के साथ एकमेक हो जाना, दरअसल समाधि की अवस्था है। जहाँ पहुँच कर मनुष्य शरीर की विस्मृति की अवस्था में होता है। कला- साधना के क्रम में कलाकार का आत्मिक समर्पण और अहं का विस्मरण ने ही अज्ञेय जी को ‘असाध्य वीणा’ रचने को प्रेरित किया होगा।
इस कविता का असाध्य वीणा उन समस्त कलाकृति का प्रतीक है, जो सच्चे साधक के अभाव में मूक है। प्रकारांतर से यह संपूर्ण काव्य-जगत को प्रतीकित करता है, जिसे सच्चे व्याख्याकार की अपेक्षा है। कला और कलावंत को एकमेक कर देना बेहद महत्त्वपूर्ण है, चूँकि आत्मिक समर्पण के बिना कला- साधना संभव नहीं है।
इस कविता में करीटी-तरु की एक शाखा से असाध्य वीणा का निर्माण हुआ है। कवि ने किरीटी-तरु की विराटता का जो वर्णन किया गया है, वह अखंड ब्रह्म के रूप में है, जिसमें यह दृश्य संसार समाया है। विज्ञान के अनुसार इस संसार की सारी चीजें आपस में संबद्ध हैं। अज्ञानता के कारण हमें उसकी अखंडता के बजाय खंडता का बोध होता है। सही अर्थ में ज्ञान का अर्थ सृष्टि की अखंडता और संपूर्णता का बोध है। किरीटी तरु की विराटता देखिए-
“अति प्राचीन किरीटी तरु से इसे गढ़ा था।
उसके कानों में हिम शिखर
रहस्य कथा कहा करते थे
उसके कंधों पर बादल सोते थे।
उसकी करिशुंडों- सी डालें हिम वर्षा
से पूरे वन यूथों का कर लेती थीं परित्राण
कोटर में भालू बसते थे
केहरि उसके वत्कल से कंधे खुजलाने आते थे।
और सुना है जड़ उसकी जा पहुँची थी पाताल लोक
उसकी गंध प्रवणता शीतलता से
फण टिका नाग वासुकी सोता था।”(1)
चीनी लोककथा में असाध्य वीणा का निर्माण कीरी तरु से दिखाया गया है, परंतु उस वीणा के निर्माता को गौण रखा गया है। अज्ञेय जी ने असाध्य वीणा के साधक केशकम्बली प्रियंवद से पूर्व वज्रकीर्ति जैसे पात्र को उपस्थित किया है, जिसने इस वीणा का निर्माण किरीटी- तरु से किया था। इस वीणा के निर्माण में उसका पूरा जीवन खप जाता है। वीणा बजे, यह उनकी साध थी, जो जीते जी पूरी नहीं हो सकी! इस प्रकार कला- साधना से पूर्व कला- निर्माण की प्रक्रिया और उसकी महत्ता पर विचार करना कवि की सूक्ष्म दृष्टि को रेखांकित करता है। पंक्ति देखिए-
“उसी किरीटी- तरु से वज्रकीर्ति ने
सारा जीवन इसे गढ़ा :
हठ साधना थी उस साधक की –
वीणा पूरी हुई, साथ साधना, साथ ही जीवन लीला।”(2)
राजा भरी सभा में प्रियंवद से कहते हैं कि इस असाध्य वीणा को साधने का प्रयास मेरे राज्य के सभी कलाकारों, संगीतकारों ने किया, किन्तु वे गुणीजन हार गए, उनकी विद्या अकारथ हो गई, दर्प चूर-चूर हो गया, क्योंकि वे इसे साधने में असमर्थ रहे। राजा को विश्वास है कि वज्रकीर्ति की कृच्छ तपस्या व्यर्थ नहीं थी। इस वीणा को जिस दिन कोई सच्चा साधक अपनी गोद में लेगा, यह वीणा बजेगी।
“मेरे हार गये सब जाने- माने कलावंत,
सबकी विद्या हो गई अकारथ, दर्प चूर,
×……..×………×………..×………..×
पर मेरा अब भी है विश्वास
कृच्छ- तप वज्रकीर्ति का व्यर्थ नहीं था।
वीणा बोलेगी अवश्य, पर तभी
इसे जब सच्चा- स्वर सिद्ध गोद में लेगा।”(3)
प्रियंवद सही अर्थों में कलावंत है, चूँकि उनमें कलावंत होने का कोई दंभ नहीं है। वह एक सच्चा साधक है, जो अपनी साधना को अनवरत जारी रखना चाहता है। जिस दिन कोई मनुष्य अपनी किसी स्थिति को जीवन का चरम मान लेता है, उसी दिन से उसका अध:पतन प्रारंभ हो जाता है। महान दार्शनिक प्लेटो ने कहा था -‘मैं बस एक ही बात जानता हूँ कि मैं कुछ नहीं जानता हूँ।’ प्रियंवद सदैव शिष्य साधक होने का भाव रखता है। वह कहता है-
“राजन! पर मैं तो
कलावंत हूँ नहीं, शिष्य साधक हूँ।
जीवन के अनकहे सत्य का साक्षी।”(4)
प्रियंवद में कोई अहं भाव नहीं है। इसीलिए वह असाध्य वीणा के बहाने उस विशालकाय किरीटी-तरु का स्मरण करता है और स्वयं को सौंप देता है। मौन प्रियंवद वीणा को साधने से पूर्व स्वयं को शोधता है। जो स्वयं को शोध नहीं सकता, वह स्वयं को सौंप नहीं सकता और जो स्वयं को सौंप नहीं सकता, उसे कुछ भी पाने का अधिकार नहीं मिलता। इस संदर्भ में कबीर ने भी कहा है- ‘सिर सौंपे सोई पिवै, नहीं तो पिया न जाई।'(5) यहाँ सिर अहंकार का वाचक है। जो शिष्य अपने समस्त अहंकारों का उत्सर्ग कर गुरु के प्रति समर्पित हो जाता है, उसे ही परम् ज्ञान की प्राप्ति हो पाती है। असाध्य वीणा का प्रियंवद सच्चे साधक के रूप में सत्य का अनुसंधान कर वीणा के मूल रहस्य तक पहुँचना चाहता है। इस निमित्त वह पहले स्वयं को शोधता है और फिर स्वयं को किरीटी-तरु को सौंप देता है। अज्ञेय जी लिखते हैं –
“मौन प्रियंवद साध रहा था वीणा-
नहीं, स्वयं अपने को शोध रहा था
सघन निविड़ में वह अपने को
सौंप रहा था उसी किरीटी- तरु को।”(6)
वीणा को साधते हुए प्रियंवद भूल गया था राज- सभा को। वह अकेलेपन में डूब गया था। इस तरह समाधिस्थ हो जाता है वह। उसकी समाधि में साक्षी है केवल विशालकाय जीवित किरीटी- तरु। समाधिस्थ होने के कारण ही प्रियंवद ‘ईगो- लेश’ हो जाता है। किरीटी- तरु के प्रति उनका समर्पण देखिये –
“ओ दीर्घकाय !
ओ पूरे झारखण्ड के अग्रज,
तात, सखा, गुरु, आश्रय,
त्राता महाच्छाय,
ओ व्याकुल मुखरित वन – ध्वनियों के
वृंदावन के मूर्त रूप,
मैं तुझे सुनूं,
देखूं, ध्याऊं
अनिमेष, स्तब्ध, संयत, संयुक्त, निर्वाक्
कहाँ साहस पाऊं
छू सकूँ तुझे!”(7)
कवि ने किरीटी-तरु को ईश्वर का रूप प्रदान करते हुए उसे उन गुणों से संपन्न दिखाया है, जो परमात्मा के गुण हैं। इसीलिए किरीटी- तरु के प्रति प्रियंवद का अहंकार- विहीन समर्पण वस्तुत: परमात्मा के प्रति आत्मा का समर्पण प्रतीत होता है। प्रियंवद में आत्मोत्सर्ग का भाव कूट- कूट कर भरा है। भक्ति साहित्य में इसे ‘प्रपत्तिभाव’ कहा गया है। इस भाव में साधक स्वयं को परमात्मा पर उसी प्रकार छोड़ देता है, जैसे कोई बालक माँ के भरोसे पर अपने को छोड़ता है। अंग्रेजी कवि की एक प्रसिद्ध पंक्ति है- ‘ओ लेडी! वी रिसीव बट वाॅट वी गिव।’ (8) (भद्रे! हम महज उतना ही पाते हैं, जितना देते हैं!) असाध्य वीणा में लगता है कि अज्ञेय प्रियंवद के माध्यम से सीधे विराट नियति को संबोधित कर रहा है-
“नहीं, नहीं! वीणा यह मेरी गोद में रखी है, रहे,
किन्तु मैं ही तो
तेरी गोदी बैठा मोद- भरा बालक हूँ,
ओ तरु- तात! संभाल मुझे,
मेरी हर किलक
पुलक में डूब जाय :
मैं सुनूं,
गुनूं,
विस्मय से भर आंकूं
तेरे अनुभव का एक- एक अन्त:स्वर
तेरे दोलन की लोरी पर झूमूं मैं तन्मय-
गा तू :
तेरी लय पर मेरी सांसें
भरें, पुरें, रीतें, विश्रांति पायें।”(9)
ज्ञान समग्रता का बोध कराता है, परंतु अज्ञानता द्वैत और विश्रृंखलता का। ज्ञानियों को सबकुछ संबद्घ दृष्टिगोचर होता है। प्रियंवद को भी इसी समग्रता का ज्ञान है, तभी वह समर्पण भाव से कहता है-
“गा तू!
यह वीणा रखी है तेरा अंग अपंग –
किन्तु अंगी तू अक्षत, आत्म भरित
रस विद ,
तू गा
मेरे अंधियारे अंतस में आलोक जगा
स्मृति का
श्रुति का -“(10)
इस कविता में कवि ने प्रियंवद के माध्यम से ज्ञान की सूक्ष्मता का जो वर्णन किया है, वह अनिवर्चनीय है। प्रियंवद को घनी रात में महुए का चुपचाप टपकने से लेकर गड़ेरियों की अनमनी बासुरी और कठफोरे के ठेके तक का ज्ञान है। इसकी कुछ और बानगी देखिए –
“मुझे स्मरण है
उझक क्षितिज से
किरण भोर की पहली
जब ताकती है ओस बूंदों को
उस क्षण की सहसा चौंकी सिहरन।”(11)
सूक्ष्म ज्ञान के बावजूद भी उनमें कोई अहंकार नहीं है। साधक प्रियंवद केशकम्बली ने स्वयं के अहं को विसर्जित कर मौन भाव से स्वयं को समर्पित कर दिया। वह एक अबोध बालक की भांति निश्छल है। वह कहता है –
“मुझे क्षमा कर भूल अकिंचनता को मेरी –
मुझे ओट दे, ढ़क दे ओ शरण्य !”(12)
आखिरकार असाध्य वीणा बजती है। प्रियंवद उसे साध लेता है। कवि लिखते हैं –
“अवतरित हुआ संगीत
स्वयंभू
जिसमें सोता है अखंड
ब्रह्म का मौन
अशेष प्रभामय।
डूब गये सब एक साथ
सब अलग-अलग एकाकी पार तिरे।”(13)
जब असाध्य वीणा से स्वर लहरियाँ फूटती हैं तो वह ‘अनहद नाद’ की भाँति सबको अलग-अलग सुनाई पड़ता है। जिस प्रकार ब्रह्म की अनुभूति पृथक – पृथक होती है, उसी प्रकार वीणा के स्वर की प्रतीति अलग-अलग हो रही है। ऐसे ही अवसर पर गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है- ‘जाकी रही भावना जैसी। तिन हरि मूरति देखिये तैसी।’ वीणा के स्वर में भी पार्थक्य का कारण सभासदों की भावनात्मक भिन्नताएँ हैं। यह स्वर किसी को प्रभु का कृपा वाक्य प्रतीत हुआ, किसी को आतंक से मुक्ति का आश्वासन, किसी को तजोरी में सोने की खनक, किसी को अनाज की खूशबू, किसी को नयी वधू की पायल-ध्वनि, तो किसी को मंदिर की ताल युक्त घण्टा- ध्वनि।
असाध्य वीणा के स्वर को सुनकर राजा के मन में निहित ईर्ष्या, द्वेष, महात्वाकांक्षा और चाटुकारिता जैसी दुर्भावनाएँ नष्ट हो जाती हैं। राजमुकुट उसे शिरीष के फूलों- सा हल्का लगने लगता है। रानी ने भी मणि- माणिक, कण्ठहार, पट- वस्त्र,मेखला आदि को अंधकार का कण कहकर उत्सर्ग कर दिया। वीणा के नाद ने उसे जीवन की शाश्वतता का बोध करा दिया। पंक्ति देखिए-
“राजमुकुट सहसा हल्का हो आया था
मानो वह फूल सिरिस का
ईर्ष्या, महात्वाकांक्षा, द्वेष, चाटुता
सभी पुराने लुगदे से झर गये,
निखर आया था जीवन – कांचन।
×……..×……..×………..×………
तुम्हारे ये मणि- माणिक, कण्ठहार, पट- वस्त्र
मेखला- किंकिणि
सब अंधकार के कण हैं, ये आलोक एक है।”(14)
इस कविता में सच्चा साधक प्रियंवद केशकम्बली अहंकार का विस्मरण कर चुका है। वह वीणा को इसीलिए साध पाता है, चूँकि वह स्वयं को सौंप देता है। उनमें प्रपत्तिभाव कूट- कूट कर भरा है। इसीलिए वीणा बजाने के बाद भी वह इसका श्रेय नहीं लेना चाहता। उनमें ‘तथता’ का भाव है। इस शब्द का प्रयोग बौद्ध- दर्शन में किया गया है। तथता वस्तुत: स्वयं को भीतर की ओर मोड़ना है। वह अहंकार शून्य- भाव से कहता है –
-“श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में –
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था –
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ मेरी ‘तथता’ थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
सब में गाता है।”(15)
असाध्य वीणा में सृष्टि की अखंडता की अभिव्यक्ति है। सद्ज्ञान प्राप्ति के पश्चात पार्थक्यता का भाव स्वत: मिट जाता है। प्रियंवद एकांत साधक है। वह अपनी सत्ता को परम सत्ता में मिला देता है। वह वीणा के साथ एकमेक हो जाता है। उसका यह भान भी मिट जाता है कि वीणा उसकी गोद में है या वह स्वयं वीणा की गोद में। वह वीणा को साध रहा है या वीणा स्वयं उसे साध रही है। सच में यह अज्ञेय की संपूर्ण काव्य- साधना की परिणति है, जिसमें कला को अंत:प्रज्ञा के साथ जोड़ने की चेष्टा की गई है। यह कविता बाहरी कोलाहल से परे कला -साधक को अपने भीतर की ओर मोड़ने की प्रेरणा देती है। यह कविता अहं के विस्मरण का संदेश देती है। यह कविता मानव के अंतस में सुषुप्त परम चेतना को उद्बुद्ध करती है।
संदर्भ ग्रंथ- सूची :
1. सन्नाटे का छन्द, कविता संचयन (नदी के द्वीप)- संपादक- अशोक वाजपेयी, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर- 334003, प्रथम संस्करण : 1997, पृष्ठ संख्या- 113 – 114
2. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 114
3. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 114
4. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 115
5. कबीर ग्रंथावली – संपादक- श्यामसुंदर दास, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2014, पृष्ठ संख्या – 51
6. सन्नाटे का छन्द, कविता संचयन (नदी के द्वीप)- संपादक- अशोक वाजपेयी, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर- 334003, प्रथम संस्करण : 1997, पृष्ठ संख्या- 116
7. उपरिवत, पृष्ठ संख्या – 117
8. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास- डाॅ. रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण- 1986, पृष्ठ संख्या – 28
9. सन्नाटे का छन्द, कविता संचयन (नदी के द्वीप)- संपादक- अशोक वाजपेयी, वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर- 334003, प्रथम संस्करण : 1997, पृष्ठ संख्या- 117- 118
10. उपरिवत, पृष्ठ संख्या – 118
11. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 120
12. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 121
13. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 121
14. उपरिवत, पृष्ठ संख्या- 123
15. उपरिवत, पृष्ठ संख्या -126
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लेखक- श्री राधाकृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी, बिहार के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक तथा अध्यक्ष हैं।