‘अंधेर नगरी’ की रचना भारतेंदु हरिश्चन्द्र ने सन् 1881 ई. में की,जिसे ‘प्रहसन’ माना गया है। इसके अन्तर्गत छह छोटे-छोटे अंक हैं, जिन्हें नाटक के छह दृश्य कहा जा सकता है। यह एक व्यंग्यात्मक रचना है, जिसमें विनोदपूर्ण शैली में कुशासन के दुष्परिणामों को रेखांकित किया गया है। ऐसा राजा! जिसके शासनकाल में कोई व्यवस्था न हो, जहाँ न्याय-अन्याय में भेद न किया जाता हो, अच्छे-बुरे में कोई अन्तर न होता हो, निश्चय ही ‘चौपट राजा’ है और उसकी नगरी ‘अन्धेर नगरी’ है।
इस प्रहसन के प्रथम अंक में एक महन्त अपने दो शिष्यों- गोवर्धनदास एवं नारायणदास के साथ भजन गाते हुए प्रवेश करता है तथा लोगों को लोभ से बचने का उपदेश भी देता है। एक नगर के बाहर पड़ाव डालकर वह अपने दोनों शिष्यों को भिक्षा के लिए नगर में भेज देता है। वह नारायणदास को पूरब तथा गोवर्धनदास को पश्चिम की ओर भेजता है। यहाँ पूरब और पश्चिम भी अपना विशेष अर्थ रखता है। पूरब वस्तुत: विश्व के पूर्वी देशों- महादेशों को रेखांकित करता है, जहाँ आर्थिक समृद्धि तो नहीं है, परंतु शिक्षा और संस्कार है। वहीं पश्चिम, पाश्चात्य देशों को प्रतीकित करता है, जहाँ बाजार का चकाचौंध है। बाजारवाद की गलाकाट प्रतिद्वन्द्विता है। जहाँ सबकुछ बिकाऊ है।
हम देखते हैं कि नाटक के दूसरे अंक का प्रारम्भ बाजार के दृश्य से होता है, जहाँ प्रत्येक दुकानदार बोली लगा-लगाकर अपना माल बेच रहा है। वह तरह-तरह से अपने सामानों- उत्पादोंवका विज्ञापन करता है। यह बाजार प्रतीक है, सारे विश्व का जहाँ अंग्रेज भी हैं और भारतीय भी हैं। गोवर्धनदास को बाजार में प्रवेश करते ही पता चलता है कि यहाँ प्रत्येक वस्तु ‘टके सेर’ बिक रही है। वह बड़ा प्रसन्न होता है। पहले वह भरपेट मिठाई खाता है और खरीदकर ले भी जाता है।
तीसरे दृश्य में गोवर्धनदास प्रसन्नता में नाचते-गाते गुरु के पास पहुँच कर सारी वस्तुस्थिति से उन्हें अवगत कराता है। गुरुजी कहते हैं कि हमें ऐसी ‘अन्धेर नगरी’ में नहीं रहना चाहिए, जहाँ ‘टके सेर भाजी और टका सेर खाजा’ बिकता हो, जहाँ का राजा चौपट्ट हो, किन्तु गोवर्धनदास लोभ के वशीभूत होकर वहीं रह जाता है।
नाटक के चौथे दृश्य में राजा के दरबार को दिखाया गया है, जहाँ राजा मदिरापान करता है तथा अपनी मूर्खता का परिचय देता है। मंत्री उसकी चापलूसी, खुशामद एवं चमचागिरी करते हैं। राजा की मूर्खता को उजागर करना और यह निरूपित करना ही इस दृश्य का प्रयोजन है कि मूर्ख राजा किसी बेगुनाह को बिना सोचे समझे और बिना किसी कारण के दण्ड देता है।
राजा के दरबार में एक फरियादी न्याय की गुहार लगाते हुए बताता है कि मेरी बकरी के ऊपर कल्लू बनिया की दीवार गिर गई, जिससे बकरी मर गई। चौपट्ट राजा फरियादी को विश्वास दिलाता है कि तुम्हें ऐसा न्याय मिलेगा, जैसा यम के यहाँ भी नहीं मिलता है। न्याय की प्रक्रिया के दौरान एक के बाद एक- कल्लू बनिया, कारीगर, चूने वाला, भिस्ती, कसाई, गड़ेरिये और अंत में कोतवाल साहब को राजसभा में प्रस्तुत किया जाता है। आखिरकार बकरी के मरने का जिम्मेदार कोतवाल को ठहराकर और उसे फाँसी की सजा सुनाकर राजदरबार को बर्खास्त कर देता है।
पांचवें दृश्य में गोवर्धनदास को उस अंधेर नगरी में मिठाई खाते और आनन्द मनाते दिखलाया गया है। वह सोचता है कि मेरे गुरुजी व्यर्थ में ही मुझे यहाँ रहने से रोक रहे थे। यह तो बहुत अच्छी नगरी है। तभी अचानक राजा के सैनिक आकर उसे पकड़ ले जाते हैं। अब उसे अपनी भूल का बोध होता है और गुरु की बात न मानने पर वह पश्चाताप होता है।
एक फरियादी की बकरी दीवार के नीचे दबकर मर गई। जिसकी सजा अन्तत: कोतवाल साहब को हुई है। कोतवाल के गले में फाँसी का फंदा डाला गया, गर्दन पतली थी, फंदा मोटा बन गया था। अतः राजा ने उसे मुक्त कर दिया और ऐसा मोटा आदमी खोजकर लाने को कहा, जिसकी गर्दन फंदे में फिट हो जाय। इसीलिए सिपाही गोवर्धनदास को पकड़ ले गए जो टके सेर की मिठाई खा-खाकर मोटा हो गया था।
जब गोवर्धनदास फाँसी पर चढ़ाया जाने वाला था, वह गुरु जी को याद करता है। तभी वहाँ गुरुजी प्रकट हुए और उन्होंने चिन्तित गोवर्धनदास को इस विपत्ति से मुक्ति का उपाय बताया। गुरु और शिष्य में इस बात पर विवाद होने लगा कि फाँसी पर तुम नहीं चढ़ोगे, मैं चढूंगा। इस होड़ को देखकर वहाँ राजा, मंत्री और अन्य दरबारी भी उपस्थित हो गए। फाँसी पर चढ़ने के लिए लगी इस होड़ को देखकर जब राजा पूछता है कि यह क्या मामला है, तुम दोनों ही क्यों फाँसी पर चढ़ना चाहते हो, तब गुरुजी बताते हैं कि इस समय ऐसा सुयोग बन रहा है कि जो फांसी पर चढ़ेगा, वह सीधा स्वर्ग जायेगा, इसलिए हममें से प्रत्येक फाँसी पर चढ़ना चाहता है। मूर्ख राजा यह सुनकर स्वयं फाँसी पर चढ़ जाता है। नाटक की समाप्ति गुरुजी के इस वाक्य से होती है कि जहाँ धर्म-बुद्धि और नियम-कानून पर आधारित समाज न हो, वहाँ नहीं रहना चाहिए, क्योंकि इस अन्धेर नगरी में निवास करने वालों का उसी तरह विनाश होता है, जैसा चौपट्ट राजा का हुआ।
अंधेर नगरी एक उद्देश्यपूर्ण नाटक है, जिसमें नाटककार ने अंग्रेजों के कुशासन का पर्दाफाश किया है। वे चौपट्ट राजा की भाँति धर्मबुद्धि एवं न्याय से विहीन व्यवस्था भारत में चला रहे हैं। जो राजा न्याय का रक्षक कहा जाता है, वही निर्दोष को सजा दे रहा है। इस विवेक हीनता एवं अन्याय का दुष्परिणाम भी शीघ्र सामने आता है, जब राजा अपने ही फैलाये हुए जाल में फंसकर स्वयं अपना विनाश कर लेता है। अन्धेर नगरी अंग्रेज सरकार के निकम्मेपन पर, उनकी अन्यायपूर्ण शासन नीति पर करारा व्यंग्य है। राजा मूर्ख है, बुद्धिविहीन है तथा खुशामद पसन्द एवं विवेकहीन है। उसके बौद्धिक दिवालियेपन का पता संवादों से चल जाता है। घासीराम चूरन वाला तत्कालीन अवस्था को किस प्रकार अपने गाने में व्यक्त करता है, इसका पता निम्न पंक्तियों से चलता है:
“चूरन हाकिम सब जो खाते।
सब पर दूना टिकस लगाते।।
चूरन साहब लोग जो खाता।
सारा हिन्द हजम कर जाता।।”
इस चूरन से कैसा हाजमा दुरस्त होता है कि अंग्रेज लोगों ने इसे खाकर ही सारे ‘भारत देश’ को हजम कर लिया। यही नहीं सरकारी कर्मचारियों में रिश्वत का बोलबाला था, जिसे वह निम्न पंक्तियों में व्यक्त करते हैं:
“चूरन चला दाल की मण्डी।
इसको खायेंगी सब रण्डी।।
चूरन अमले सब जो खावें।
दूनी रिश्वत तुरत पचावें।।”
‘अन्धेर नगरी’ में अन्धेर इस सीमा तक बढ़ गया था कि अपराध कोई करता था और दण्ड किसी और को भुगतना पड़ता था। अंग्रेजी राज में भी यही सब दिखाई देता था। अविवेकी, प्रमादी एवं न्याय-विहीन राजा की परिणति क्या होती है, यही दिखाना भारतेन्दु जी का लक्ष्य है। साथ ही यह भी सन्देश दिया है कि व्यक्ति को लोभ लालच से दूर रहना चाहिए। अन्यथा उसे गोवर्द्धनदास की भाँति मुसीबत में फंसना पड़ सकता है।
‘अन्धेर नगरी’ में सत्ता की विवेकहीनता, राजनीतिक व्यवस्था में पनपता भ्रष्टाचार सत्ताधारियों की मानसिकता एवं निरंकुशता के साथ जनता में आई जड़ता एवं शिथिलता का भी उल्लेख किया गया है। निरीह जनता को किस प्रकार ठगा जा रहा है, मूल्यों में कैसी विकृति एवं विसंगति आई है, इसे चित्रित करना भी इस नाटक का उद्देश्य है। चौपट राजा के राज्य में अराजकता व्याप्त हो जाती है। न्याय-व्यवस्था पंगु हो जाती है तथा जीवन मूल्यों का क्षरण हो जाता है। इसे अभिव्यक्ति देने में भारतेन्दुजी को पूर्ण सफलता मिली है।
डॉ. गिरीश रस्तोगी के अनुसार- “निश्चय ही ‘अन्धेर नगरी’ एक प्रहसन होते हुए भी अपने कथ्य में आधुनिक, निरन्तर नवीन और शैली-शिल्प में मौलिकता लिए हुए परम्परा और प्रयोग का उदाहरण है।”
‘बकरी’ की मृत्यु का दण्ड गोवर्द्धनदास- जैसे निरीहों को कब तक मिलता रहेगा, कौन उस गोवर्द्धनदास को बचाएगा, कौन उसकी आँखों पर पड़े लोभ, प्रमाद के परदे को हटाएगा, यह सोचने के लिए भी नाटक हमें बाध्य करता है। आवश्यकता है, उस विवेकी गुरु की, जो बेगुनाह की रक्षा कर सके। तभी इस आसन्न विपत्ति से भारतीय जनता को मुक्ति मिल सकेगी, यही नाटककार का मुख्य संदेश है।