बह का समय और गर्मी का मौसम,जिसमें रमजानी अपना तरकारी वाला ठेला लिए हुए बाजार की ओर चला था।मन में अनंत कामनाएँ हिलोरें ले रही थीं। कल ईद है। घर में सेबईयाँ बनेगी…. खीर, पकवान और न जाने क्या- क्या…. ?
चारों तरफ हलचल मची है। सभी खरीद- बिक्री करने में जुटे हैं। कोई अपने लिए नयी कमीज बनवा रहा है तो कोई अपनी बीबी के लिए सूट-सलवार का नाप देने जा रहा है। किसी को बच्चे के लिए नये कपड़े खरीदने हैं तो किसी खिलौने। किसी को दूध की पड़ी है, इसीलिए बदना लिए भागे जा रहा है। कहीं देर हो गई तो सब चौपट्ट! लो मना लो ईद !
लेकिन रमजानी के भीतर कुछ और ही चल रहा था।उसके पास तो फूटी कौड़ी भी नहीं थी, यह सब सोचे भी कैसे ?
वह आज चार दिनों के बाद ठेला निकालकर उधारी की तरकारी लिए बाजार की ओर चला था। शाम तक बिक गयी तो महाजन का हिसाब चुकता कर जो कुछ बचेगा, उससे सिमरन के लिए फ्राक और रहीम के लिए एक कमीज बनवाएगा।अपनी तो पुरानी कमीज ही ठीक है। बस, एक बटन टूटी है। चलेगा।बची दुखनी! क्या मांगेगी बेचारी, उससे क्या छिपा है!
पचपन की उम्र और चार दिनों की बुखार ने उसके शरीर को तोड़कर रख दिया था। बुखार अभी ठीक से उतरा भी नहीं था,पर पेट की आग उसे घसीटे जा रहा था। कमाई सौ रुपये भी हो गयी तो बीस-बीस का सिमरन और रहीम के लिए नये कपड़े आ जाएंगे। और हाँ, बीस-बाईस में रहीम की अम्मी के लिए एक दुपट्टा। बाँकी बचे चालीस। तेल ,मैदा,सेबईयाँ सब आ जाएगा!
रमजानी इन्हीं हिसाबों में खोया हुआ एक मील की दूरी कैसे तय कर लिया ,पता भी न चला। सड़क के दोनों ओर उसके ही खेत थे। खेत क्या, खेत की टुकड़ी। सड़कनुमा छुड़की, जिसमें गेहूँ और सरसो की पकी हुई फसलें मंद हवाओं के साथ डोलकर अपनी जीर्णता का बोध करा रही थीं।
रमजानी जब भी यहाँ से गुजरता, इन खेतों को देखकर उनकी आँखें अनायास भर आती थीं। लवह भी कभी एक किसान हुआ करता था। वह भी पाँच बीघे जमीन का मालिक था! खेती-पथारी करके पूरे परिवार सुख-चैन से रहता था, परंतु जब से ‘नेशनल हाईवे’ बनाने के लिए उसकी जमीनें जबरन सरकार ने हरप ली गईं, रमजानी सड़क छाप आदमी हो गया।परिवार दाने-दाने के लिए मुहताज हो गया। गाँव के किसानों के साथ उसने मुआवजे के लिए भूख हड़ताल किया। आफिसरों के आगे गुहार लगायी, पर कोई लाभ नहीं। ऊपर से पुलिस की लाठी, पानी का बौछार…..घोर अन्याय। गाँव के अधिकांश किसान मजदूर हो गए! जिनके धैर्य ने जवाब दे दिया, वे आत्महत्या कर अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली।
चुनाव के समय नेताओं की भीड़ लगी रहती है यहाँ। सभी घड़ियाली आँसू बहाकर एक ही बात कहते हैं कि गाँव के किसानों के साथ अन्याय हुआ है।अगर हमारी सरकार बनीं तो सबसे पहले किसानों को उचित मुआवजा दिलाया जाएगा। पुनर्वास के लिए जमीन दी जाएगी तथा गृह-निर्माण के लिए इन्द्रावास। लेकिन जीतने के बाद कौई पूछने नहीं आता!
रमजानी बाजार पहुँचकर सड़क किनारे ठेला अटका दिया और तरकारी बेचने लगा। आने में कुछ देर हो गई, इसलिए उसके नियत जगह पर किसी और ने फलिया बिछाकर तरकारी सजा दिया था।अब कौन झगड़े। जितना भाग्य में लिखा होता है, उतना ही मिलता है।
रमजानी ऊपर देखा तो सूरज माथे के सीध में आ चुका था, लेकिन अब तक आधी तरकारी भी नहीं बिकी थी। ग्राहकों का आना कम हो गया था। जो भी आता मोल-भाव कर चल देता। जैसे हराम का माल हो।
रमजानी ने तरकारी पर पानी का फुहारा मारा और ठेला ले जाकर पीपल की छाँव में अटका दिया। देह गर्म लोहे की तरह तप रहा था। नाक से बार-बार पानी आ रहा था। माथा भारी लग रहा था। वह सामने की दवा दुकान पर जाकर एकाध गोली लेना चाहा। लेकिन जब दुकानदार ने बुखार नापकर एक सौ बियालीस रुपये की दवा थमा दी, तो उसका सारा बुखार तुरंत उतर गया। इतने की दवा ले ले तो दुखनी घर में न रहने देगी।और फिर तेहबार का क्या होगा! सिमरन और रहीम के कपड़े कहाँ से आएंगे। दूध, तेल, मैदा….कौन देगा!
रमजानी चुपचाप ठेले की ओर बढ़ते हुए कहा- “नहीं लेना है साहेब !”
“क्यों, क्या हुआ ?”
“इतने पैसे नहीं हैं!”
“तो कितने हैं ?”
“नहीं, नहीं है पैसे।”
“भाग साला! बाप का माल समझा क्या!”
दुकानदार ने उसे डपटते हुए कहा।
तीन बजते-बजते ग्राहकों की आवाजाही तेज हो गई,पर जब तक दस दरबार देखे नहीं…मोलाए नहीं, जी नहीं भरता।जब किल्लत पड़ेगी, तब एक के सबा देंगे।
रमजानी ने अपना गल्ला मिलाया। अभी तो महाजन के दो सौ पूरे होने में तेईस रुपये कम थे।
पाँच बजे तक ग्राहकों की भारी भीड़ जम गई। रमजानी तबाह ! अब कौन तौले….कौन पैसा काटे ? वह पछता रहा था- सिमरन को लेकर आता तो थोड़ी आफियत मिलती। क्या पता कि भीड़ में कोई बिना पैसे दिये ही निकल जाय। आजकल किसके ईमान का ठिकाना है!
रमजानी अभी तरकारी बेचने में मशगूल था कि उसके कान से एक जोरदार आवाज टकरायी-
“अतिक्रमण हटाओ….
अतिक्रमण हटाओ।”
इसके साथ ही क्षण भर में चारों तरफ़ भगदड़ मच गयी।लोग बेतहासा भागने लगे..शब्जी वाले, फल वाले, मूढ़ी वाले ,झिल्ली वाले, चूड़ी वाले ….सबके सब तबाह ! पुलिस वाले लोगों को गाय-भैस के तरह दौड़ा- दौड़ाकर पीट रहे थे तो दूसरीओर कुछ पुलिसवाले लोगों का सामान ट्रक में लाद रहे थे।
रमजानी भी जान लेकर भागा, परंतु भागते- भागते उसे दो लाठी लग चुकी थी। उसके फुटकर पैसे भी वहीं छूट गए।पुलिस वाले जब रमजानी का ठेला लादने लगे तो उससे नहीं रहा गया।
ठेला चला गया तो उसके परिवार का गुजारा कैसे होगा! वह कौन-सा मुँह लेकर अपने घर जाएगा।
क्या जवाब देगा सिमरन को, रहीम को और फिर ईद? रमजानी का कलेजा फटने लगा।
अब वह हिम्मत बटोरकर दारोगा जी के सामने पहुँचकर गिड़गिड़ाने लगा- “माई-बाप हम पर रहम कीजिए। हम गरीब आदमी हैं। ठेला हमारे रोजी-रोटी का साधन है। इसी से पाँच जने का पेट पालते हैं सरकार। ठेला न रहा तो बाल-बच्चा…”रमजानी फूटकर रोने लगा।
“साला तेरे बाप का रोड है बाप की जमीन है जो ठेला लगाएगा।” एक पुलिस वाले ने उसे पुलिसया अंदाज में गरियाते हुए डपटा।
रमजानी के पास और कोई चारा नहीं था।इसलिए वह दारोगा जी का दोनों पैर छान लिया। फिर उसके बाद क्या हुआ, उसे कुछ भी याद नहीं है।आँखें खुलीं तो खुद को जेल में पाया शरीर पर अनेक पट्टियाँ लगी थीं। यहाँ वह अकेले नहीं था। शब्जी वाले, मूढ़ी वाले, चूड़ी वाले , कचड़ी वाले सबके सब उसके साथ थे।
रमजानी ने दर्द को पीकर कहा-“आज ईद है।” इस पर हलवाई ने ठठाकर हँसते हुए कहा-“किस दुनिया से आए हो भाई, ईद तो परसो ही था!”
रमजानी एक गहरी साँँस लेकर पुनः किसी शून्य में खो गया! ***********************