अकाल में उत्सव : कृषक जीवन की त्रासदी

प्रेमचंद रचित महाकाव्यात्मक उपन्यास ‘गोदान’ के पश्चात कृषकों के त्रासद जीवन की अभिव्यक्ति पंकज सुबीर रचित उपन्यास ‘अकाल में उत्सव’ में हुई है। यह उपन्यास शिवना प्रकाशन, नई दिल्ली से 2016 ई. में प्रकाशित हुआ। उपन्यास को पढ़ते हुए लगा कि एक लंबे अंतराल के बाद कृषक जीवन पर इतना यथार्थपूर्ण लेखन किया गया। इस उपन्यास में ‘गोदान’ की ही भाँति दो समानांतर कथाएँ चलती रहती हैं। एक कथा गाँव की और दूसरी शहर की। कथा के उत्तरार्द्ध में लेखक ने दोनों कथाओं का एक मेहराव तैयार कर पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया है। उपन्यास को पढ़ते हुए कभी प्रेमचंद का ‘गोदान’ याद आता है, कभी रांगेय राघव की कृति ‘तूफानों के बीच’ तो कभी फणीश्वरनाथ रेणु का रिपोर्ताज ‘ऋणजल और धनजल’।

इस उपन्यास में एक तरफ ‘सूखा पानी’ गाँव के किसानों की त्रासदी को रखा गया है तो दूसरी ओर शहर के मनाए जाने वाले उत्सव को। यहाँ गाँव ठीक वैसा ही है, जैसा होता है। पात्र भी ठीक वैसे ही हैं, जैसे गाँवों में होते हैं। उपन्यास का नायक हैं- रामप्रसाद। रामप्रसाद को हम टाईप कैरेक्टर कह सकते हैं, चूँकि उसमें किसान होने सामान्यत: सभी विशेषताएँ हैं। वह केवल ‘सूखा पानी’ गाँव ही किसान नहीं लगता, बल्कि वह समकालीन भारत के तमाम किसानों का सहोदर प्रतीत होता है। वह गोदान का नायक होरी की कब्र से ही एक सदी बाद निकला हुआ किसान है। होरी से बस उतना ही भिन्न है, जितना समकालीन परिवेश ने उसे ठोक- पीटकर बनाया है।

उपन्यास में एक ओर गाँव का गरीब किसान रामप्रसाद है तो दूसरी ओर शहर (जिले) का कलक्टर श्रीराम परिहार। एक तरफ गाँव के किसान अकाल से बेहाल हैं, तो दूसरी ओर नगर में जोरों से उत्सव की तैयारी हो रही है। उत्सव इसलिए, ताकि सरकारी माल को सहजता से ‘घप्प’ किया जा सके। कलक्टर साहब और उनके सारे मुहलगुए अधिकारीगण अधिक से अधिक माल को खपाने में लगे हैं। इस ‘नगर उत्सव’ में सब शामिल हैं- छोटे- बड़े अधिकारी, नेतागण, पत्रकार, पुलिस वाले, कवि, लेखक, अपराधी….सबके सब। उपन्यास का यह प्रसंग बरबस मुक्तिबोध की चर्चित कविता ‘अंधेरे में’ में वर्णित ‘जुलूस’ का स्मरण दिलाता है। वैसा जुलूस, जिसमें इसी तरह सबके सब शामिल थे – नेता, पुलिस, कवि, पत्रकार से लेकर कुख्यात अपराधी डोमाजी उस्ताद तक।

उपन्यासकार ने बड़ी ही कुशलता के साथ ग्रामीण और शहरी कथाओं को सूत्रबद्ध किया है, जिसमें दोनों परिवेश अपनी तमाम खूबियों और खामियों के साथ उपस्थित है। कथानायक रामप्रसाद की विपन्नता तो बहुत हद तक उन्हें विरासत में मिली है। शेष उनकी परंपरा और दिखावटीपन की परिणति है। रामप्रसाद निम्न मध्यवर्गीय पात्र है, जो अपने पर खोखलेपन और दिखावटीपन का मुलम्मा चढ़ाकर जीने में विश्वास करता है। हालाँकि दयनीयता की स्थिति में रामप्रसाद को मजदूरी से परहेज नहीं है। वह गोदान के होरी की भाँति किसानी मर्यादावाद से ग्रसित नहीं है और न उन्हें कोई गाय पालने की प्रबल इच्छा है। वह किसी भी तरह अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी की जुगत में रहता है। अपने परिवार के सदस्यों तथा परिजनों के प्रति वह अत्यंत संवेदनशील है। रामप्रसाद अपनी बहन की सास के मरने पर अपनी पत्नी के आभूषण, जो अबतक गिरवी पर था, को औने-पौने दामों पर बेच देता है, ताकि अच्छे से निमंत्रण पूरा जा सके।

रामप्रसाद छोटा जोतदार है। उसके पास अब मात्र दो एकड़ जमीन है, जिसमें गेहूँ की फसल लगी है। उसी फसल के भरोसे पर वह महाजन से उधार भी लेता है और पत्नी का आभूषण भी बेच डालता है। वह सोचता है कि फसल आने पर सब ठीक हो जाएगा। कर्ज भी सध जाएगा और पत्नी का आभूषण भी खरीद लिया जाएगा। लेकिन उसका यह स्वप्न बस स्वप्न बनकर रह जाता है। उसकी पीड़ा को लेखक कुछ इस तरह शब्दबद्ध किया है- ‘किसान के जीवन में बढ़ते दुख उसकी पत्नी के शरीर पर घटते जेवरों से आकलित किये जा सकते हैं।’ हर चीज की कीमत दिन दूनी,रात चौगुनी बढ़ रही है, पर कृषि उत्पाद की कीमत कछुए की चाल से बढ़ती है। जब तक यह उत्पाद किसानों के पास होती है, उसका मोल मिट्टी के बराबर है, जब यही चीजें पूँजीपतियों के हाथ आ जाती हैं तो दस रूपये का माल सौ रूपये हो जाता है। हम यह नहीं समझते कि बीस रूपये प्रति किलो के धान से निकलने वाला चावल सौ रूपये कैसे हो जाता है! पचास रूपये प्रति लीटर मिलने वाले दूध से बना दही डेढ़ सौ रूपये प्रति किलो कैसे हो जाता है! पच्चीस रूपये वाले गेंहू से बना आटा साठ रूपये कैसे हो जाता है! आखिरकार कौन है जो किसान और उपभोक्ता के बीच का मुनाफा गटक रहा है! कौन है जो निरीह किसानों के श्रम का बेजा लाभ उठा रहा है!

अपने खेतों में लहलहाते फसल को देखकर जीवन की उम्मीदों के साथ जीने वाला रामप्रसाद उस दिन भीतर से टूट जाता है। जब बैंक से कर्ज की अदाएगी का फरमान आता है।अबतक उसे उम्मीद थी कि फसल की बर्बादी के कारण किसानों का कर्ज माफ हो जाएगा। लेकिन ऐसा कुछ नहीं होता है। असमय ओलावृष्टि और बारिस ने किसानों की उम्मीद पर पानी फेर दिया। आखिरकार गाँव भर के किसानों के साथ जब रामप्रसाद कलेक्टर साहब से मिलने जाता है तो वे ‘नगर उत्सव’ में व्यस्त रहने के कारण मिलने नहीं आते हैं और अपने से नीचे के अधिकारी को भेजकर किसानों के प्रति संवेदनहीनता का परिचय देते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि इस देश में में बड़े- बड़े उद्योगपतियों का कर्ज माफ कर दिया जाता है। देश की निरीह जनता के अरबों रूपये समेटकर फरार होने वाले पर कोई कार्रवाई नहीं होती है, परंतु पचीस- पचास हजार रूपये कर्ज लेने वाले किसानों के में घर कुर्की- जब्दी हो जाती है! ऐसे में ये किसान आत्महत्या न करे तो क्या करे…!

किसान कभी भी शौक से कर्ज नहीं लेता। दिनो-दिन बढ़ती महंगाई के बीच खाद, बीज, कीटनाशक, जुताई, सिचाई और कटाई के लिए पैसे तो चाहिए उन्हें। ऐसी स्थिति में वह न चाहते हुए भी कर्ज लेता है। यह सर्वविदित है कि किसानों का जीवन संकटों से घिरा है। उसके सपने पूरे नहीं होते। बच्चों की पढ़ाई हो या कोई त्योहार किसान के लिए सब बराबर है। दो वक्त की रोटी किसान की कामयाबी होती है। कर्ज तो किसान के जीवन के साथ नाभिनाल की भाँति जुड़ा है। वह कर्ज में ही पैदा होता है और कर्ज में ही मर जाता है। इसी समस्या को रेखांकित करते हुए पंकज सुबीर लिखते हैं- ‘हर छोटा किसान किसी न किसी का कर्जदार है! बैंक का, सोसाइटी का, बिजली विभाग का या सरकार का….!’

भारत जैसा विकासशील देश, जिसमें आजादी के 78 सालों बाद भी सत्तर प्रतिशत जनता कृषि से जीवनयापन कर रही है। उस देश में किसानों की समस्या पर विचार नहीं करना कितना त्रासदायक है। आज कृषि के क्षेत्र में अनेक अन्वेषण हुए हैं, जिससे इस कार्य में कुछ सहजता आयी है, परंतु प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति में ये किसान बर्बाद हो जाते हैं। बाढ़ हो या सुखाड़, ओला वृष्टि हो या पाला वृष्टि, इनके भगवान ही मालिक हैं। इन आपदाओं का शिकार होने पर आखिरकार किसानों के संरक्षण के लिए सरकारी स्तर पर क्या किया जाता है। दिन-रात मेहनत करने के बावजूद देश के अधिसंख्य किसान गरीबी रेखा से ऊपर नहीं उठ पाते। और यह बात किसी से छिपी नहीं है। यह कितना हास्यास्पद है कि जिस देश की सत्तर प्रतिशत जनता आज भी पांच किलो सरकारी अनाज खाकर जी रही है, वह देश को विकसित राष्ट्र बनने का स्वप्न देख रहा है! मुट्ठी भर लोगों के अरबपति हो जाने से कोई देश विकसित नहीं हो सकता। वह विकसित होगा तब जब आम जनता का जीवन स्तर उठेगा, जब हर आदमी शिक्षित होगा, जब हर हाथ को काम मिलेगा…..।

‘अकाल में उत्सव’ वस्तुत: समकालीन भारतीय समाज का वह उपन्यास है, जो दिखाता है कि हम समानांतर रूप से एक ही देशकाल और परिस्थिति में दो पृथक – पृथक जीवन जी रहे हैं। एक ओर दबा कुचला और निरीह हिन्दुस्तान है,जिसकी दुनिया अभी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आश्रित है, तो दूसरी ओर चमकता- दमकता ‘इंडिया’ है, जहाँ डिजिटल प्रगति है, पूंजी है, अनगिनत अवसर है। इस इंडिया में ‘सबका साथ और सबका विकास’ बस एक खूबसूरत जुमला है। संपन्नता और विपन्नता के बीच गहरी खाई नहीं, दहाड़ता हुआ समुद्र है।

उपन्यासकार ने सरकारी अधिकारियों, नेताओं और पत्रकारों के साथ ही पूंजीवादी मनोविज्ञान का भी पर्दाफाश किया है। वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों को कच्चे मालों के बीच के गणित को सहजता से समझाता है। पन्द्रह रूपये क्विंटल के समर्थन मूल्य पर बिकने वाली मक्का काॅर्न फ्लैक्स तीन सौ रूपये प्रति किलो या तीस हज़ार रूपये प्रति क्विंटल बिक जाता है। इस तरह दिनानुदिन हम पूंजीवादियों के गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं। उन्होेंने हमारी ही जमीन से पानी निकाल कर हमारे सामने बीस रूपये प्रति लीटर परोस दिया है….और हम हैं कि शान समझकर इसे पिये जा रहे हैं।

प्रस्तुत उपन्यास में एक तहसीलदार को किसानों की क्षति का आकलन कर मुआवजे के निर्धारण के लिए भेजे जाता है। वह रामप्रसाद के साथ बहुत बुरे तरीके से पेश आता है। वह कर्ज को लेकर कुर्की का फरमान जारी कर जाता है। और हद तो तब हो जाती है, जब उसके अधबटिया वाले फसल की भरपाई नहीं किये जाने का फैसला सुनाता है। अधबटिया को छोड़कर रामप्रसाद के पास दो एकड़ तीन डिसमिल जमीन आँकी जाती है, जिसका मुआवजा तय होता है- दो हज़ार तीन सौ रुपए मात्र।

‘दो हज़ार तीन सौ’ रटते -रटते रामप्रसाद विक्षिप्त हो जाता है। उसी दिन वह कुएँ के भीतर रस्सी से लटक कर आत्महत्या कर लेता है, जब उधर शहर में उत्सव अपने शबाब पर है। डीएम साहब के मुहलगुए ऑफिसर और नेताओं ने इधर- उधर से व्यवस्था कर सारी तैयारी पूरी की थी, ताकि माल अधिक से बचाया जा सके….! लेकिन रामप्रसाद की आत्महत्या ‘दूध में नमक’ सिद्ध होता है, क्योंकि रामप्रसाद मुख्यमंत्री के क्षेत्र का किसान है। उसका आत्महत्या कर लेना चिंता का विषय है। मुख्यमंत्री जी अधिकारियों की माँ- बहन कर रहे थे। चूँकि उनके खिलाफ विरोधियों को बोलने के लिए मसाला मिल गया था।

अतएव, कलक्टर श्रीराम परिहार के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती थी, किसी तरह इस मामले को रफा-दफा करना। कॉपरेटिव बैंक अधिकारी से लेकर स्थानीय नेताओं और आफिसरों के पसीने छूट रहे थे। अंतत: कुशाग्र वुद्धि वाले कलक्टर साहब ने समाधान निकाल ही लिया। उन्होंने रामप्रसाद की पत्नी कमला को धमकाते हुए कहा कि
‘बोलो मेरा पति पागल था….
बोलो कि मेरा पति पागल था।
बोलो कि उसने स्वयं आत्महत्या कर ली…..!’

आखिरकार कैमरे के सामने चित्कार कर बोल उठी कमला- ‘हाँ! मेरा पति पागल था….मेरा पति पागल था और उसने स्वयं आत्महत्या कर ली…..!’ कमला यही कहते हुए विक्षिप्त हो जाती है। उपन्यास का यह दृश्य सर्वाधिक मार्मिक है। कमला की करुण चित्कार से सहृदय पाठकों का कलेजा फट जाता है….!

उपन्यास की समाप्ति कुमार विश्वास की एक कविता की दो पंक्तियों से होती है-
‘कोई दिवाना कहता है, कोई पागल समझता है!
मगर धरती की बेचैनी को बस बादल समझता है!’

उपन्यासकार इसपर टिप्पणी करता है कि ‘काश! धरती की बेचैनी को बादल समझ पाता! अगर धरती की बेचैनी को बादल समझा होता तो क्यों होती कोई भूमि बंजर…क्यों बनता कहीं रेगिस्तान….क्यों फटता धरती का सीना….क्यों किसान करते आत्महत्या…..!’

आलोच्य उपन्यास में किसानों की वास्तविक पीड़ा को अभिव्यक्त किया गया है। प्रेमचंद के बाद जो राज और समाज में तब्दीली आई…आजाद भारत में जो किसानों के सामने संकट आए, उसका जीवंत चित्रण यहाँ हुआ है। इस उपन्यास को हम गोदान की परंपरा में रखते हुए समकालीन भारतीय कृषक जीवन का त्रासद महाआख्यान कह सकते हैं।

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लेखक, श्री राधा कृष्ण गोयनका महाविद्यालय, सीतामढ़ी (बिहार) के हिन्दी विभाग में सहायक प्राध्यापक और अध्यक्ष हैं।

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